मनुष्य का जन्म जब इस संसार में होता है तब वह खाली हाथ मुठ्ठी बाँधे हुए आता है और जब यहाँ से विदा लेने लगता है तब भी मुठ्ठी खोले खाली हाथ ही चला जाता है। इसका अर्थ यही है कि मनुष्य इस दुनिया में न कुछ लेकर आता है और न ही कुछ लेकर जाता है। तब यह मारकाट, हेराफेरी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, उठापटक आदि मनुष्य किसके लिए करता है?
जन्म और मृत्यु नदी के दो छोरों की तरह हैं जो कभी आपस में नहीं मिल पाते। धरती और आसमान की तरह ये दोनों बस एक दूसरे को निहारते रहते हैं। रस्सी के एक छोर से दूसरे छोर तक की दूरी तक बड़ी सावधानी से चलते हुए पार करनी पड़ती है। जहाँ चूक हुई वहीँ सब बर्बाद हो जाता है।
प्रातःकाल जब सूर्योदय होता है तो उस समय मानो नवसृष्टि का आह्वान होता है। प्रकृति में चारों ओर प्रसन्नता की लहर दौड़ जाती है, हर कोना सूर्य के प्रकाश में जगमगाने लगता है। पक्षियों का कलरव नवगीत बन जाता है। उसी प्रकार नव शिशु के जन्म पर घर-परिवार में आनन्द-मंगल छा जाता है। नन्हा शिशु नई उमंग और उत्साह का प्रतीक बनकर खुशियाँ बिखेरता है।
अपने उदय के पश्चात पल-पल करके सूर्य दिन का अपना चक्र पूर्ण करता हुआ फिर अपने अवसान यानी सूर्यास्त की ओर बढ़ता जाता है। उसी प्रकार मनुष्य क्षण-क्षण करके अपने इस जीवनक्रम को पूर्ण करता हुआ अपने अन्त अर्थात मृत्यु की ओर कदम बढ़ाता चलता है।
सूर्य की उदय से अस्त तक की यात्रा यूँ ही सरलता से निर्विघ्न समाप्त नहीं हो जाती। उसके लिए उसे भी संघर्ष करना पड़ता है। कभी किसी ग्रह के उसके मार्ग में आ जाने से उसे ग्रहण लग जाता है और कभी-कभार काले घने बादल आकर उसे ढक लेते हैं। उस समय दिन में ही रात्रि का आभास होने लगता है। तब वह हार नहीं मानता और बादलों के बीच से निकालकर पुनः चमकने लगता है।
मनुष्य की जन्म से मृत्यु तक की यात्रा भी कष्टों और संघर्षों से भरी रहती है। कदम-कदम पर उसके लिए काँटे बिछाने वालों की कमी नहीं होती। उसके दुःख और उसकी परेशानियाँ उसे चैन नहीं लेने देते। दुखों की बदली छँटने तक उसकी दयनीय दशा में उसे कोई सहारा नहीं देता बल्कि और भाई-बंधुओं की तरह उसकी अपनी परछाई तक साथ छोड़ देती है।
अपने और अपने परिवार के लिए तो सभी जी लेते हैं। वास्तव में जीना उन्हीं का सफल होता है जो दूसरों के लिए अपना जीवन दाँव पर लगा देते हैं। उन्हें ही संसार सदा स्मरण करता है। यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि मृत्यु अवश्यम्भावी है।
सूर्य कष्टों का सामना करते हुए भी अपने अहं का त्याग नहीं करता। दोपहर यानी उसके यौवन काल के समय का उसका प्रचण्ड तेज असहनीय होता है। उसी प्रकार मनुष्य का अहं उसे ले डूबता है। काल की ओर बढ़ते हुए उसके लिए अहंकार उचित नहीं है।
जिस प्रकार रात्रि सम्पूर्ण संसार के विश्राम के लिए होती है उसी प्रकार मृत्यु भी मनुष्य के लिए जन्म से अब तक की सारी थकान मिटाने के लिए माँ की गोद की तरह सुखदायिनी होती है। इस मृत्यु से घबराना नहीं चाहिए बल्कि प्रसन्नता से इसकी प्रतीक्षा करते रहना चाहिए।
इस दुनिया का चलन भी बहुत विचित्र है, वह जीवित रहते मनुष्य की सुध नहीं लेती। उसके कष्टों में उससे सहानुभूति भी नहीं रखती। एक इन्सान दूसरे इन्सान को सहारा देने से कतराता है। परन्तु जब उसकी मृत्यु हो जाती है तो फिर वही सब लोग कन्धा देने के लिए पहुँच जाते हैं। इसका कारण यही है कि मृतक को अन्तिम यात्रा के लिए कन्धा देना भारतीय परम्परा के अनुसार पुण्य का कार्य माना जाता है।
जहाँ तक हो सके समाज में रहते हुए दूसरों की सहायता अवश्य करनी चाहिए। हो सकता है कि उनके दिए गए आशीषों के फलस्वरूप अपने बन्द ताले की चाबी मिल जाए और मनुष्य का इहलोक-परलोक दोनों ही सुधर जाएँ। उसे चौरासी लाख योनियों वाले जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति मिल जाए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 19 अगस्त 2016
जन्म से मृत्यु तक
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