सभ्य समाज के लिए यह बहुत बड़ा कलंक है कि यदि उसके आयुप्राप्त बुजुर्गों के लिए घर में स्थान न हो। वह घर-परिवार एक श्मशान की तरह है जहाँ उनके वृद्ध माता-पिता की सुरक्षा अथवा देखभाल नहीँ की जा सकती।
माता-पिता अपना सारा जीवन बच्चों के लालन-पालन में व्यतीत कर देते हैं। उनकी ख़ुशी में खुश होते हैं और उनके गम में दुखी हो जाते हैं। साधन सम्पन्न लोग तो खैर बच्चों की सारी आवश्यकताएँ सुविधा से पूरी करते हैं। परन्तु जिनके पास उतनी सुविधाएँ नहीं हैं, वे भी अपने बच्चों के लिए कोई कमी नहीं छोड़ते।
अपने घर में कुत्ते-बिल्लियाँ पालेंगे और नौकरों की फ़ौज भी रखेंगे। उन पर वर्षभर में लाखों रुपए हँसी-ख़ुशी खर्च देते हैं किन्तु माता-पिता को देने के लिए कुछ थोड़ी-सी राशि उनके पास नहीं बचती। सारी कटौती उन्हीं के लिए की जाती हैं।
धन्य हैं ऐसी नालायक सन्तान जिसे इतनी भी तमीज नहीं कि वे रत्तीभर भी अपने माता-पिता की परवाह कर लें। यह देख लें कि उन्होंने भोजन किया या नहीं, कहीं उनका स्वास्थ्य तो खराब नहीं है, उन्हें दवा की आवश्यकता तो नहीं, उनके पास पहनने के लिए वस्त्र तो हैं। ऐसे घरों में किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान, दिए जाने वाले दान आदि सब व्यर्थ हो जाते हैं। वहाँ से सुख-शान्ति उड़न छू हो जाती है।
इन्हीं कपूतों को पाने के लिए माता-पिता ईश्वर से हाथ जोड़कर पुत्र की कामना करते हैं। जो उनके जीते जी सेवा नहीं कर सकता, उनका ध्यान नहीं रख सकता वह उन्हें कौन से तथाकथित नरक से उभारेगा, जैसी कि मान्यता है।
इन्हीं कपूतों के लिए बेटियों को जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाता है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश बेटियों को अपने माता-पिता की परवाह बेटों से अधिक होती है। वे आजन्म उनकी चिंता करती हैं और आवश्यकता पड़ने पर उनका सहारा भी बनती हैं।
बहुत दुर्भाग्य की बात है कि अपने माता-पिता के लिए चिन्तित रहने वाली यही बेटियाँ जब बहु बनकर ससुराल जाती हैं तो वहाँ जाकर सास-ससुर को ही भार मानने लगती हैं। उनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखने में कोताही बरतती हैं। वहाँ जाकर उन्हें सारी नैतिकता भूल जाती है। उन्हीं माता-पिता से उन्हें उनकी सारी धन-सम्पत्ति चाहिए होती है। उनके सारे कर्त्तव्य तो उन्हें बड़ी अच्छी तरह से याद रहते हैं परन्तु अपने दायित्व वे भूल जाती हैं।
यही कारण है कि जरूरत से ज्यादा पढ़ी-लिखी यह युवा पीढ़ी अपने सारे कर्त्तव्यों को ताक पर रखकर मात्र अपने ही स्वार्थ को साधने में लगी हुई है। जिसका परिणाम बहुत घातक सिद्ध हो रहा है।
घर के बुजुर्गों को या तो कोने में किया जा रहा है या फिर परेशान होकर उन्हें किसी वृद्धाश्रम की शरण में जाना पड़ रहा है। यहाँ भी धन प्रधान है। यदि वह है तो मनचाही सुविधाएँ मिल जाएँगी अन्यथा पूछ नहीं होती। कितने दुर्भाग्य की बात है कि अकेले माता-पिता दस बच्चों को पाल सकते हैं, परन्तु दस बच्चों के होते हुए वे दरबदर की ठोकरें खाने को विवश हैं।
कभी वृद्धाश्रम जाने का अवसर मिले तो वहाँ विद्यमान वृद्धों से यह अवश्य पूछना कि आपका बेटा क्या करता है? उनमें से अधिकांश बजुर्गों का यही उत्तर होगा कि उनका बेटा बड़ा अफसर है या नामी डॉक्टर है या सुप्रसिद्ध वकील है या योग्य इंजीनियर है या मजिस्ट्रेट है अथवा किसी कालेज या यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर है। इन सभी पढ़े-लिखों को क्योंकर कोई अपने कर्त्तव्य का बोध कराए।
इसके विपरीत शायद ही कोई वृद्ध वहाँ ऐसा मिलेगा जिसका बेटा अनपढ़ या गरीब है। इसका कारण है कि अनपढ़ या गरीब व्यक्ति को समाज और ईश्वर का डर होता है। उसके मन में कभी यह बात कभी नहीं आएगी कि माता-पिता को कभी वृद्धाश्रम भेजा जा सकता है।
यदि पाश्चात्य जगत के अन्धानुकरण के कारण यही आधुनिक युग का सत्य बनता जा रहा है तो इस सच्चाई पर सौ बार धिक्कार है। ऐसी सन्तान के लिए तो अन्ततः माता-पिता यही कह बैठते हैं ऐसी सन्तान के न होने पर वे निस्संतान रह जाते तो अच्छा था। ईश्वर तथाकथित शिक्षित और सभ्य कहलाने वाली ऐसी नालायक पीढ़ी को सद् बुद्धि प्रदान करे।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 11 अगस्त 2016
सभ्य समाज का कलंक
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