स्वतन्त्रता दिवस की सभी भारतवासियों को हार्दिक शुभकामनाएँ। स्वतन्त्रता दिवस पर विशेष-
हम भारतीयों के संस्कार में है कि अपनी जन्मभूमि को जन्मदात्री माता से कम नहीं मानते। इसकी मिट्टी से तिलक लगाकर रणबाँकुरे बिना परवाह किए अपने प्राणों की बाजी लगा देते हैं। इसके पीछे भावना मातृभूमि की सुरक्षा करने की होती है। क्या मजाल है कि शत्रु इसकी ओर आँख उठाकर भी देख ले।
जिस धरती पर हमने जन्म लिया है, जिसकी मिट्टी में धूलधूसरित होते हुए बड़े हुए हैं, जिसके अन्न-जल से हम पुष्ट हुए हैं वही भूमि हमारी माता है। इसीलिए हम इसे जन्मभूमि कहते हैं।
जन्मभूमि हमारी अपनी ही जन्मदात्री माता की तरह सभी कष्ट सहन करके हमें जीवन की सारी खुशियाँ देती है। हमें स्वर्ग के समान सभी प्रकार के सुख-सुविधा के सारे साधन देती है।
हम इस धरा पर अत्याचार करते रहते हैं अर्थात् अपने पैरों से इसे रौंदते हैं, जीभर कर कूड़ा-कचरा फैंकते हैं, अपना बोझ उस पर डालते हैं, अपनी सुविधा के लिए बड़े-बड़े भवन बनाकर बार-बार इस धरा की हरियाली को नष्ट करते रहते हैं, पर्यावरण और प्रदूषण की समस्याएँ पैदा करते हैं। फिर भी यह हमसे कभी नाराज नहीं होती बल्कि हमारा बोझ सहन करती रहती है। हमारे मार्ग को सदा सुगमतर ही करती रहती है।
ऐसी मातृभूमि को छोड़ कर कहीं अन्यत्र जाना उचित नहीं। अपनी धरती, अपने देश की मिट्टी, अपना देश हमें सदा प्रिय होने चाहिए। विश्व में कहीं भी रहने वालों को इसकी सौंधी सुगन्ध हमेशा याद रहती है। वे चाहकर भी अपनी इस देव तुल्य भारतभू का मोह नहीं छोड़ पाते। जब भी मौका मिले अपने देश चले आते हैं जहाँ पर जन्म लेने के लिए देवगण भी लालायित रहते हैं।
वाल्मीकि रामायण में भगवान श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण से यही आशय व्यक्त कर रहे हैं-
न मे सुवर्णमयी लंकापि रोचते लक्ष्मण।
जननीजन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।
अर्थात् भगवान श्रीराम कहते हैं- हे लक्ष्मण मुझे सोने की लंका भी रुचिकर नहीं प्रतीत होती। जननी और जन्मभूमि दोनों स्वर्ग से भी महान होती हैं।
भगवान श्रीराम ने लंका पर विजय प्राप्त करके भी वहाँ राज्य करना अथवा वहाँ रहना स्वीकार नहीं किया। उनके लिए सोने की लंका का कोई मोल नहीं। वे अपनी मातृभूमि अयोध्या में वापिस जाना चाहते हैं। उनके अनुसार जन्मदात्री माता के चरणों में मनुष्य का स्वर्ग है। उसी प्रकार अपनी जन्मभूमि में जो सुख-साधन हैं, वही स्वर्ग तुल्य हैं।
बहुत से ऐसे देश हैं जहाँ सारा साल गरमी रहती है या सरदी, वहाँ हमारे देश की तरह छह ऋतुएँ नहीं आतीं। वहाँ के निवासी अनेक कष्ट सहन करते हैं परन्तु फिर भी उस देश के वासी उसे छोड़कर अन्यत्र नहीं जाते।
यही कारण है कि हमारे भारत के नवयुवकों ने निहत्थे भोले-भाले भारतीयों पर अत्याचार करने वाले अंग्रेजों को अपने देश से बाहर निकालने और उसे स्वतन्त्र करवाने के लिए बिना किसी हिचकिचाहट के अपने प्राणों की आहुति दी। हम सभी उनके बलिदान के फलस्वरूप इस धरा की स्वतन्त्र हवा में साँस ले रहे हैं। धन्य हैं वे स्वतन्त्रता सेनानी और उनकी वे माताएँ जिनकी तपस्या को उन युवाओं ने सार्थक कर दिया।
यहाँ न जाने कितनी ही सभ्यताएँ धूल-धूसरित हो गई हैं वहीँ हमारी प्राचीनतम सभ्यता और संस्कृति फूलों की तरह मुस्कुराती हुई गर्व से सिर उठाए ब्रह्माण्ड के नीलाकाश में ध्रुवतारे की भाँति जगमगा रही है और मार्गदर्शक का कार्य कर रहीं हैं।
अपने देश, अपने वेश और अपनी भाषा से हर व्यक्ति को प्यार होना चाहिए। जिस इन्सान को अपने देश, अपने वेश और अपनी भाषा से प्यार नहीं वह सही अर्थों में मनुष्य कहलाने का अधिकारी नही। उनकी अवहेलना करने वाला हमेशा निन्दनीय होता है। हमें अपने इस अतुल्य भारत देश पर बहुत गर्व है। इक़बाल जी पंक्तियाँ स्मरण हो रही हैं-
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 14 अगस्त 2016
स्वतंत्रता दिवस
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