इस असार संसार में असम्भव काम दो ही हैं - पहला है अपनी माता की ममता का मूल्य आँकना और दूसरा है पिता की क्षमता का अनुमान लगा सकना।
आज की युवा पीढ़ी यह समझती है कि वह बड़ी हो रही हैं तो उसे समझदार कहलाने का लाइसेंस मिल गया है। परन्तु यह सोच तो किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराई जा सकती। बच्चे भूल जाते हैं कि जीवन के जिस पायदान पर वे खड़े हैं उनके माता-पिता उसे पार करके वहाँ से कहीं आगे निकल आए हैं।
उन्हें शायद अपनी इस बेतुकी सोच पर अधिक गर्व होता है कि वे बहुत योग्य हैं और दुनिया के बाकी सभी लोग उनके सामने हुक्का भरते हैं यानि मूर्ख हैं। यह कथन सर्वथा सत्य है कि पैदा होते ही वे बच्चे अपने बूते पर पूरी तरह से योग्य नहीं बन गए थे। उन्हें योग्यता के सोपानों पर सफलता से चढ़ने की ट्रेनिंग इन्हीं माता-पिता ने दी थी जिनका सम्मान करने में उनकी हेठी होती है।
बच्चों को सदा यह बात याद रखनी चाहिए कि माता-पिता ने इस संसार में उन्हें जन्म देकर, उन्हें पढ़ा-लिखकर इस योग्य बनाया है कि वे आज सिर उठाकर समाज में जी रहे हैं। जो बच्चे माता-पिता को मान नहीं दे सकते उन्हेँ न समाज क्षमा करता है और न ही ईश्वर। उनकी सारी पूजा-अर्चना भी ईश्वर की दृष्टि में व्यर्थ हो जाती है यदि वे अपने माता-पिता का दिल दुखाते हैं या उनकी अवहेलना करते हैं।
दुनिया में सिर्फ माता-पिता ही ऐसे हितचिन्तक होते हैं जो बिना किसी स्वार्थ अपने बच्चों से प्यार करते हैं। माता-पिता बच्चों के लिए बहुत संवेदनशील होते हैं। वे उनके लिए सब कुछ न्योछावर कर देते हैं। स्वयं भूखे रहकर भी बच्चों को भूखे नहीं सोने देते। उनके सुख-दुःख को अपना मानते हुए सब स्वयं झेल जाते हैं, उन्हें गर्म हवा तक नहीं लगने देना चाहते।
उनके लिए सब प्रकार साधन जुटाकर वे प्रसन्न होते हैं। इसलिए उनके प्यार और उनकी ममता की परीक्षा लेने के लिए उन बेचारों का अनावश्यक लाभ नहीं उठाना चाहिए और न ही उसका मोल नहीं लगाना चाहिए।
अपनी सफलता का रौब अपने माता-पिता को कभी नहीं दिखाना चाहिए क्योंकि उन्होनें अपनी जिंदगी को हारकर ही अपनी सन्तान को जिताया होता है। इसीलिए कहा जाता है की जीतने वाले से जिताने वाले का महत्त्व अधिक होता है।
जिस सीढ़ी से ऊपर चढ़ो उसी को ही धक्का मरकर गिरा देने वाली प्रवृत्ति से बच्चों को बचना चाहिए। उन्हें अपने लिए बस यही सोचना चाहिए कि जीवन के किसी मोड़ पर यदि उनके साथ ऐसा हो गया तो वे क्या करेंगे?
समय रहते बच्चों को चेत जाना चाहिए कि माता-पिता से बड़कर कोई और उनका शुभ चाहने वाला नहीं हो सकता। दुनिया तो स्वार्थ की बुनियाद पर चलती है। मित्रों, सम्बन्धियों, भाई, बन्धुओं से जितना व्यवहार करोगे उतना करवा लोगे। यदि उसमें कभी कुछ कोर-कसर रह गयी अथवा किसी अवसर पर उनका मनचाहा उन्हें न दे सके तो उन सम्बन्धों में दरार आने लगती हैं।
इसके विपरीत माता-पिता की बादशाही होती है। उनके साथ व्यवहार रखो चाहे न रखो, उनकी तरफ से सम्बन्ध कभी समाप्त नहीं होते। उनका मन भी यदि बच्चे दुखाते हैं तो भी उनके मन से कभी बददुआ नहीं निकलती। वे सदा ही अपने बच्चों को आशीर्वाद देते हैं। इसीलिए शास्त्र उन्हें भगवान मानते हैं और उनकी पूजा करने का परामर्श देते हैं।
वे बच्चे बड़े अभागे होते हैं जिनके माता-पिता उनके होते हुए दरबदर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर हो जाते हैं। दो जून खाने, बीमारी में इलाज के लिए और बच्चों से अपनेपन के अहसास के लिए तरसते हैं। बच्चों के पास चाहे लाखों-करोड़ों हों पर यदि माता-पिता के लिए कुछ नहीं तो सब व्यर्थ है। ऐसे निर्लज्ज और दुष्ट बच्चे ईश्वर किसी को न दे।
यह बात हमेशा गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि उन्हें ज़िन्दगी का ककहरा पढ़ाने वाले माता-पिता अपने प्यार में सन्तान से चाहे हर जाएँ किन्तु उन्हें मूर्ख अथवा जाहिल समझने की भूल वे कभी न करें। वे चाहें तो उन्हें नाकों चने चबवा सकते हैं। यदि बच्चों को समाज और घर-परिवार का डर नहीं है तो बैंक उनके बुढ़ापे का सहारा बनने और उन्हें हर प्रकार की सुविधाएँ देने के लिए बाहें फैलाए बैठे हैं। कानून उनकी सुरक्षा करने के लिए हर प्रकार से सन्नद्ध है।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 3 अगस्त 2016
माता-पिता की ममता और क्षमता
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