हम नित्य प्रातः उठकर दिन की शुरूआत करते समय सोचते हैं कि जीवन में पैसा ही सब कुछ है। इसका कारण है यह भौतिकवादिता। मनुष्य को हमेशा याद रखना चाहिए कि धन केवल साधन है, साध्य नहीं। दूसरों की होड़ करते समय यह मनुष्य अपनी क्षमताओं को अनदेखा कर देता है। फिर बाद में परेशान होता रहता है।
मनुष्य बस कोल्हू के बैल की तरह दिन-रात अथक परिश्रम करके अपने सारी सुविधाएँ जुटा लेना चाहता है। परन्तु जब सन्ध्या के समय दुनिया के थपेड़े खाकर थका-हारा घर लौटकर आता है तब उसे लगता है कि सुकून के दो पल मिल जाएँ बस। तब उसे धन से अधिक शान्ति ही सब कुछ प्रतीत होने लगती है।
जो रिश्तों का मान रखना जानते हैं, वे उनके लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने मे नहीं हिचकिचाते। यह आवश्यक नहीं कि उनके पास बहुत अधिक धन हो या समय हो। अपने प्रिय मित्र जो आगे बढ़कर होटल आदि के बिल का भुगतान करते हैं, उन्हें मित्र पैसों से अधिक प्रिय होते हैं। अन्यथा वे भी अपने हाथ जेब में रखकर दूसरों का मुँह ताक सकते हैं।
जो बन्धु-बान्धव हर काम में आगे रहते हैं उन्हें कभी मूर्ख समझने की भूल नहीं करनी चाहिए क्योंकि उन्हें इस बात का सदा अहसास रहता है कि उन्हें भी किसी को जवाब देना है। इस भौतिक संसार के लोगों के प्रति तो वे उत्तरदायी हैं ही पर मृत्यु के पश्चात परमात्मा को भी उन्हें उत्तर देना है। वे यही मानते हैं कि हर इन्सान को एक दिन उस मालिक के सामने अपनी सच्चाई और ईमानदारी का हिसाब देना होता है, दुनिया को नहीं।
वास्तव में महान वही लोग होते हैं जो किसी प्रियजन से मनमुटाव हो जाने की स्थिति में गलती न होने पर भी पहले क्षमा याचना कर लेते हैं। इसका कारण अपनी हेठी करवाना कदापि नहीं होता। इसका अर्थ होता है कि वे अपने प्रियजनों को बहुत चाहते हैं, उनकी परवाह करते हैं। वे उन्हें किसी भी मूल्य पर खोना नहीं चाहते, अपनी जिन्दगी का हिस्सा बनाए रखना चाहते हैं। यह केवल व्यक्ति विशेष की सोच पर निर्भर करता है।
पूरा शहर बसता रहे पर कोई किसी की मदद नहीं करने के लिए नहीं आता। जो लोग बिनमाँगे सहायता करने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाते हैं, वास्तव में वही अपने होते हैँ। उन लोगों का सदा उपकार मानना चाहिए जो जरूरत के समय आवश्यकता पड़ने पर बिना किसी हील-हुज्जत के सहायक बने। अपने मन में यह संकल्प करना चाहिए कि वे भी लोगों की सहायता बिना अहसान जताए करेंगे।
यदि परेशानी के समय कोई हमारी सहायता बिना किसी कामना के करता है तो हमें बहुत अच्छा लगता है, वैसे ही दूसरों को भी बहुत प्रसन्नता होगी। किसी की दुख-तकलीफ को यदि इन्सान निस्वार्थ भाव से कम कर सके तो इससे बढ़कर और कोई पुण्य नहीं हो सकता।
मनुष्य को अपने बन्धु-बान्धवों से सदा मिल-जुलकर प्रेमपूर्वक रहना चाहिए। प्रेम एक ऐसा पौधा है जो मनुष्य को कभी मुरझाने नहीं देता बल्कि सदैव प्रसन्नता प्रदान करता है। इससे आपसी सम्बन्ध प्रगाढ़ होते हैं और अकेलेपन का अहसास नहीं होता।
इसके विपरीत यदि मनुष्य अपनों से नफरत का रिश्ता बना लेता है तब वह न कभी खिल पाता है और न कभी प्रसन्नता उसकी संगिनी बनती है। यह घृणा का भाव उसे सबसे अलग करके अकेला छोड़ देता है। समय आने पर उसका साथ देने वाला अपना कोई प्रियजन उसे नहीं दिखाई देता। यह उसका सबसे बड़ा दुर्भाग्य होता है कि अपनी मूर्खताओं के कारण अपनों के होते हुए भी इस दुनिया की भीड़ में स्वयं को नितान्त अकेला पाता है।
मनुष्य को धन से भई अधिक अपने प्रियजनों की ओर ध्यान देना चाहिए। वही अपने इस संसार में साथी बनते हैं, शेष तो सब प्रदर्शन मात्र ही होता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 11 सितंबर 2016
मनन हेतु विचार
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