अपने किसी प्रियजन को जब इस असार संसार से विदा करना पड़ता है तब मन उस अकथनीय पीड़ा से विदीर्ण होने लगता है। यह दुख सहन करना बहुत ही कठिन होता है। जैसे किसी भी कारण से शाखा से टूटा हुआ फूल वापिस उसी टहनी पर नहीं लगाया जा सकता, उसी प्रकार इस दुनिया से विदा हुए मनुष्य को पुनः लौटाकर उसी रूप में वापिस नहीं लाया जा सकता।
पूर्वजन्म कृत कर्मो के अनुसार जितना भी समय जीव को वर्तमान जीवन में ईश्वर की ओर से मिलता है, उसे भोगने के पश्चात मनुष्य को एक पल की भी मोहलत नहीं मिल पाती। अपनी सारी धन-सम्पत्ति और भौतिक रिश्ते-नातों को इसी धरा पर छोड़कर उसे खाली हाथ परलोक गमन करना पड़ता है।
संसार मे ऐसा कोई भी एक घर नहीं मिलेगा जहाँ से आज तक किसी की मृत्यु नहीं हुई हो। यदि ऐसा हो पाता तो सभी राजा-महाराजा, महापुरुष और शक्तिशाली लोग तो सृष्टि के आदि से आज तक जीवित होते। तब इस धरती पर तिल रखने जितनी जगह भी हमें न मिल पाती। इस मरणधर्मा संसार में किसी भी जीव के स्थायित्व की कल्पना कर लेना नितान्त असम्भव है।
एक कथा स्मरण हो रही है। बहुत लोगों ने इसे पढ़ा और सुना होगा। अनेक महात्माओं के साथ जोड़कर यह कथा समझाने के लिए सुनाई जाती है। एक स्त्री के इकलौते बेटे की मृत्यु हो गई। वह बहुत दुखी थी और रो-रोकर उसका बहुत बुरा हाल था। फिर कुछ सोचकर और निर्णय करके अपने गाँव में पधारे हुए सन्त के पास अपने बच्चे के शव को लेकर गई।
महात्मा जी के पास जाकर उसने उन्हें प्रणाम किया और अपने बेटे के शव को उनके चरणों में रख दिया। उनसे बार-बार आग्रह करने लगी कि उसके जीवन के एकमात्र सहारे उसके बेटे को वे जीवित कर दें। सन्त ने कहा - "जिसकी मृत्यु हो जाती है, उसे जीवित करना किसी के वश की बात नहीं है।
यह सच है कि ईश्वर के इस न्याय को कोई भी नहीं बदल सकता। परन्तु वह स्त्री हठ ठानकर बैठ गई कि उसे उसका बेटा जीवित चाहिए। उसने कहा कि सन्त-महात्मा चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं। महात्मा के लाख समझाने पर भी वह न मानी।
अन्त में महात्मा ने उस स्त्री से कहा- "ऐसे घर से एक मुट्ठी चावल ले आओ, जिस घर में किसी की मौत न हुई हो। तभी मैं तुम्हारे बेटे को जीवित करूँगा।"
वह स्त्री महात्मा जी के कहने के अनुसार एक मुट्ठी चावाल लेने गाँव में चली गई। वह आश्वस्त हो गई थी कि अब उसका बेटा अवश्य जीवित हो जाएगा। वह अपने सारे गाँव का चक्कर लगाकर आ गई। पर यह क्या, उसे ऐसा कोई भी घर वहाँ नहीं मिला जहाँ किसी की मृत्यु न हुई हो।
तब उसे समझ में आ गया कि कुदरत के फैसले को बदला नहीं जा सकता। यह तो सृष्टि का नियम है कि जो इस संसार में आया है उसे यहाँ से विदा लेनी ही पड़ती है। लौटकर उसने महात्मा जी के चरण पकड़ लिए और अपने किए पर पश्चाताप करने लगी।
यह कथा मनुष्य को मात्र यही शिक्षा देती है कि इस संसार में ईश्वरीय नियम अटल हैं। उन्हें बदलने की सामर्थ्य किसी में नहीं है। मनुष्य तो बस भोक्ता मात्र है। वह अपने पूर्वजन्म कृत शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने के लिए इस संसार में आता है। सभी रिश्ते-नाते, भाई-बन्धु उसे जीवन यात्रा पूर्ण करने के लिए मिलते हैं। वह उनके साथ कैसा व्यवहार करता है अथवा उनकी कितनी सहायता लेता है, उस पर निर्भर करता है।
हमारा प्रिय-से-प्रिय जन भी एक-न-एक दिन अपना हाथ छुड़ाकर हमें रोता-बिलखता छोड़कर परलोक की यात्रा के लिए अकेला ही चला जाता है। हालाँकि अपने प्रियजनों का वियोग सहन कर पाना इतना सहज नहीं होता परन्तु कोई और चारा भी तो नहीं होता। ईश्वर के इस न्याय के आगे सिर झुका देना ही समझदारी है। उस परम न्यायकारी परमात्मा को कोसने या गाली देने से उसका न्याय नहीं बदल सकता। हमें अपनी मानसिकता को ही बदलना पड़ता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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