सोमवार, 12 सितंबर 2016

एकान्तवास

एकान्तवास यदि स्वैच्छिक हो तो मनुष्य के लिए सुखदायी होता है। इसके विपरीत यदि मजबूरी में अपनाया गया हो तो वह कष्टदायक होता है।
         प्राचीनकाल में ऐसी परिपाटी थी कि जब घर-परिवार के दायित्वों को मनुष्य पूर्ण कर लेता था यानी बच्चों को पढ़ा-लिखाकर योग्य बना देता था और बच्चों का कैरियर बना जाता था तथा उनकी शादियाँ भी कर दी जाती थीं तब वानप्रस्थ आश्रम में रहना पसन्द करते थे। इसका अर्थ यही था कि अपने दायित्व पूर्ण हो गए, अब हरि भजन की वेला है। उन्होंने अपना जीवन जी लिया है अब अगली पीढ़ी के लिए स्थान खाली किया जाए।
         वानप्रस्थी बनकर जीवन व्यतीत करने के लिए वे जंगलों की शरण लेते थे ताकि उनके और उनकी प्रभुभक्ति के मध्य आकर कोई व्यवधान न डाल सके। यह एकान्त वास उनकी आध्यात्मिक उन्नति का कारण बनता था। इस प्रकार चारों आश्रमों का विधिवत पालन करने से सामाजिक व्यवस्था सुचारु रूप से चलती थी।
        जो एकान्त वास इन्सान के लिए विवशता का कारण बन जाता है, वह उसे जीवन में निराश और हताश कर देता है। इस अकेलेपन के कई कारण हो सकते हैं। जीवन साथी की मृत्यु के बाद पुनः विवाह न करने के कारण कुछ लोग अकेले हो जाते हैं। तलाक के बाद स्त्री या पुरुष पुनः विवाह नहीं करते तो अकेले रह जाते हैं। वृद्धावस्था में बच्चों के द्वारा देखभाल न करने के कारण भी बहुत से लोगों को अकेलेपन का दंश झेलना पड़ता है।
        बहुत-सी विधवाएँ घर-परिवार के द्वारा दुत्कारे जाने पर काशी, हरिद्वार आदि धार्मिक स्थानों में बहुत यातनाएँ सहन करने करने के लिए विवश हो जाती हैं। वहाँ न उनके खाने की कोई व्यवस्था होती है और न ही रहने की। उनके घर-परिवार की घटिया सोच पर शर्म आती है कि जिन्हें अपने घर की महिलाओं की दुर्दशा पर जरा भी दुख नहीं होता। बहुत ही बेशर्मी से उन्हें वे दरबदर की ठोकरें खाने के लिए विवश करते हैं।

       अकेलेपन की इस त्रासदी को बहुत से लोग झेल नहीं पाते तो वे चिड़चिड़े होने लगते हैं। बात-बात पर क्रोध करना उनका स्वभाव बन जाता है। कुछ लोग मानसिक अवसाद पीड़ित हो जाते हैं और अनेक बिमारियाँ उन्हें घेर लेती हैं।
         इस प्रकार विवशता से अपनाया गया यह एकान्त काटने को दौड़ता है। इन्सान को समझ ही नहीं आता कि पहाड़ जैसा दिन वह कैसे व्यतीत करे?
        उस समय यदि मनुष्य इसे अपने ऊपर हावी न होने दे तो बहुत कुछ सम्हल सकता है। उसे चाहिए कि अपने खाली समय का सदुपयोग करे। सामाजिक कार्यों में स्वयं को व्यस्त रखे। अपने सद् ग्रन्थों का पारायण करे। अपने जैसे लोगों का एक क्लब बना ले जिससे अकेलेपन से मुक्ति मिल सके। वे लोग मिल-बैठकर चर्चा कर सकते हैं, कोई खेल खेल सकते हैं, कभी पार्टी कर सकते हैं अथवा ग्रुप बनाकर कहीं देश-विदेश में घूमने जा सकते हैं। इस तरह समय का सदुपयोग हो जाता है और पहाड़ जितना दिन रौनक में गुजर जाता है।
         आज भी बहुत से ऐसे लोग हैं जो एकान्त में रहकर शान्ति का अनुभव करते हैं। लोग चाहे उन्हें सनकी, खपती अथवा पागल कहें, उन्हें किसी की कोई परवाह नहीं होती। लोग उनके बारे में क्या कहते हैं, वे जानना ही नहीं चाहते। वे तो बस अपनी ही धुन में मस्त रहते हैं।
        अनेक लोग अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए जप-तप आदि करते हैं। इसके लिए उन्हें एकान्त की आवश्यकता होती है। कुछ लोग एकान्त में रहकर अपनी मौन साधना भी करते है। तब उन्हें संसार और सांसारिक कार्य-कलापों से परे ईश्वर की शरण में रहना अच्छा लगने लगता है। कुछ साधु-सन्यासी आज भी जंगलों या गुफाओं में साधना करते हुए मिल जाते हैं। ऐसे महानुभावों को दुनिया से कुछ लेना-देना नहीं होता।
         इस प्रकार एकान्त वास को ढोना कुछ लोगों के लिए मजबूरी होता है। वे अपने इस एकान्त से घबराकर अजीब-सा व्यवहार करने लगते हैं। जिनके लिए यह एकान्त वास स्वैच्छिक होता है, वे अपने इस एकान्त का सदुपयोग अपनी आन्तरिक शक्तियों को बढ़ाने अथवा सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए करते हैं। यही लोग परमान्द को प्राप्त करते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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