मनुष्य को बिनमाँगे किसी को परामर्श नहीं देना चाहिए अथवा कभी भी अनावश्यक रूप से किसी के कार्य में दखलअंदाजी नहीं करनी चाहिए। जन साधारण की आम भाषा में इसे किसी के फटे में टाँग अड़ाना कहते हैं। यदि मनुष्य ऐसा करता है तो उसे अपनी अवमानना के लिए तैयार हो जाना चाहिए। मनीषी कहते हैं कि अपनी इज्जत अपने आप हाथ में होती है।
मनुष्य को जहाँ ऐसा प्रतीत हो कि उसकी वहाँ जरूरत नहीं है तो बिना कुछ कहे अथवा कोई विशेष टीका-टिप्पणी किए हुए उसे स्वयं को चुपचाप वहाँ से अलग कर लेना चाहिए। यही बुद्धिमानी है कि मनुष्य समय को पहचानकर उसके अनुसार ही सबके साथ अपना व्यवहार करे।
जरूरत पड़ने पर लोग गधे को भी बाप बना लेते हैं पर स्वार्थ सिद्ध हो जाने दुल्लती मारकर किनारे हो जाते हैं। उसके बाद वे सहायता करने वाले को पहचानने तक से भी इन्कार कर देते हैं। निस्सन्देह यह मनुष्य की चरित्रगत विशेषता को प्रकट करता है।
इन्हीं भावों को रहीम जी ने निम्न दोहे में एक उदाहरण के साथ बड़े ही सुन्दर शब्दों में स्पष्ट किया है-
काज पड़े कछु और हैं काज सरे कछु और।
रहिमन भँवरी के भये नदी सिरावत मौर।।
अर्थात जब मनुष्य को किसी से अपना स्वार्थ सिद्ध करना होता है तब उसका व्यवहार अलग होता है और स्वार्थ पूर्ण हो जाने पर उसके तेवर ही बदल जाते हैँ। जैसे विवाह के समय आवश्यकता होने पर मुकुट को दूल्हे के सिर पर सजाया जाता है और फिर जब फेरे हो जाते हैं तो उसे नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है।
इसी प्रकार जिन सोने, चाँदी और हीरे के आभूषणों से लोग श्रृंगार करके पार्टियों में वाहवाही लूटते हैं, उन्हीं को वापिस लौटकर उतार देते हैँ। फिर उन्हें तिजोरी में बन्द करके रख देते है। यानी कि आवश्यकता पूरी हो जाने के बाद उनको किनारे करके तिजोरी में बन्द कर दिया जाता है। यही इन्सानी फितरत है, जिसकी हम यहाँ पर चर्चा कर रहे हैं।
यहाँ एक बात स्पष्ट करना चाहती हूँ कि समय और समझ दोनों ही एक साथ भाग्यशाली लोगों के हिस्से में आती हैं। कहने का तात्पर्य है कि जब समझदारी दिखाने का समय आता है तो मनुष्य चूक जाता है। घबराहट के मारे उसके हाथ-पैर फूलने लगते हैं। वह अपने बचाव न कुछ कह पाता है और न ही अपने विवेक पर भरोसा कर पाता है।
जब समय निकल जाता है तब वह समझदार बन जाता है। अपने मन ही में सोचने लगता है कि काश उसने उस समय यह, यह सब कह दिया होता तो वह बच जाता। उसकी हेठी होने से बच जाती। यह तो वही बात हुई-
'अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।'
या 'का वर्षा जब कृषि सुखाने।'
जब कभी ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ जाता है तो मनुष्य को तुरन्त ही उत्तर देना चाहिए। स्वीकारोक्ति सूचक हाँ या नकारात्मक न जैसे शब्दों का उपयुक्त समय पर उपयोग करने में दुविधा नहीं होनी चाहिए। ये दोनों शब्द छोटे होते हैं पर बड़े ही खोटे होते हैं। जरा-सी लापरवाही हो जाने पर ये सदा ही उसे मुसीबत में डालने से परहेज नहीं करते।
यदि इन शब्दों का प्रयोग उपयुक्त समय पर न किया जाए तो मनुष्य को बहुत ही हानि उठानी पड़ सकती है। बहुत सोच-समझकर इनका प्रयोग करना चाहिए। जल्दबाजी में न कहकर और समय से चूक जाने पर हाँ बोलने पर मनुष्य अपने जीवन में बहुत कुछ हार जाता है। इनका दूरगामी परिणाम कभी-कभी उसकी काया कल्प भी कर देता है।
इसलिए समय का सही उपयोग करते हुए मनुष्य को सदा सावधान रहना चाहिए। दूसरों को अनावश्यक परामर्श देने के स्थान पर उसे अपनेपर इस जीवन की पहेलियों को सुलझाने का प्रयास करना चाहिए। जब तक अच्छी तरह से तसल्ली न हो जाए उसे न तो अपनी स्वीकृति देनी चाहिए और न ही इन्कार करना चाहिए। अपने विवेक पर विश्वास करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 2 सितंबर 2016
बिनमाँगे परामर्श
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