मेरा मन होता है
व्यथित यूँ ही सदा
देखकर इस दुनिया के
दिखावे वाला अनोखा व्यवहार पाकर।
अनावश्यक ही
बना लिया है मैंने
एक संकुचित दायरा
अपने इर्द-गिर्द चारों ओर अनजाने ही।
हर समय बस
यही सोचती रहती
नहीं कोई साथी अपना
सब झूठ का व्यापार हो रहा जग में।
मन से नहीं है
चाहता किसी को
कोई भी इस दुनिया में
दिलों में शेष केवल दिखावा है बचा।
अपना-अपना
हित साधकर बस
सब हो जाते हैं ओझल
बचते हैं केवल अवशेष उन यादों के।
फिर मैंने सोचा
अपने ही मन की
गहराई से तो पाया
कितनी मूर्खतापूर्ण थी मेरी यह सोच।
सभी लोगों को
एक ही तराजू से
तौल लेने की भूल मैं
क्योंकर कर बैठी हूँ यूँ अनजाने ही।
यदि सब होते
स्वार्थी इस जग में
तो दिखाई देती दुनिया
पराई-सी, हैरान-सी, अपने में खोई-सी।
नहीं, ऐसा नहीं
दूसरों के लिए जीते
हित साधते महान जन
हर ओर न दिखाई देते पीड़ा हरते हुए।
मै अपनी इस
संकुचित सोच
पे हँस पड़ी आप ही
जाने क्या अनाप-शनाप विचार बैठी।
सबको सुनो
देखो, परखो पर
करो अपने मन की
यदि सुख का मूलमन्त्र जानना चाहो।
चन्द्र प्रभा सूद
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