अपनो के वियोग
से होने वाले दुख को
बस वही समझ सकता है
जिसने साक्षात इस पीड़ा को सहा है।
वह जन क्या जाने
परपीड़ा को इस जग में
पता न हो जिसको व्यथा का
जो होती अपनी बिवाई के फट जाने से।
जब कोई जाता है
अपना हाथ छुड़ाकर
फिर धीरे-धीरे हो जाता है
ओझल जाने कहाँ हमारी इन आँखों से।
नहीं मिल पाता
पुनः हमें इस जग में
जीवन भर इस दिल का
कर जाता है रीता-सा वह कोना-कोना।
चाहे कितनी ही
उसकी खोज करा लो
चाहे कितनी रपट लिखा लो
वह चला गया तो बस चला जाता है।
अपनों को दुखों के
इस अथाह सागर में
खाते रहने को हिचकोले
नहीं पलटकर एक बार देख पाता है।
बस मूक दर्शक
बन देखते रह जाते हैं
बन्धु-बान्धव सभी बेबस
नवयात्रा के लिए जाते प्रियजन को।
केवल देते हैं
अपनी सद्भावनाएँ
और अपनी शुभकामनाएँ
भावी जीवन की सफलताओं के लिए।
ईश्वर से केवल
प्रार्थना करते हैं बस
अपने दोनों कर जोड़कर
उनके प्रिय को आँखों से दूर न करे।
अपने चरणों में
सदा ही स्थान दे
बस अपने पास रखे
नवजीवन का दान देकर भेजे जग में।
उसका हितैषी वह
पुनः नए शरीर के साथ
उसे उन परिजनों के पास
उदास हैं जो उसके चले जाने के बाद।
चन्द्र प्रभा सूद
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