छोटे-छोटे बच्चों पर भी आज प्रैशर बहुत बढ़ता जा रहा है। उनका बचपन तो मानो खो सा गया है। जिस आयु में उन्हें घर-परिवार के लाड-प्यार की आवश्यकता होती है, जो समय उनके मान-मुनव्वल करने का होता है, उस आयु में उन्हें स्कूल में धकेल दिया जाता है।
अपने आसपास देखते हैं कि इसलिए कुकुरमुत्ते की उगने वाले नर्सरी स्कूलों की मानो बाढ़-सी आ गई है। वहाँ पर जाकर सर्वेक्षण करने से यह पता चलता है कि दो साल या उससे भी कम आयु के बच्चे पढ़ने के लिए भेज दिए जाते हैं।
अब स्वयं ही सोचिए कि जो बच्चा ठीक से बोल भी नहीं पाता, जिसे स्कूल या पढ़ाई के मायने ही नहीं पता उसे पढ़ने के लिए भेज दिया जाता है। कितना बड़ा अन्याय और अत्याचार हो रहा है उन मासूमों के साथ।
कारण समझ नहीं आता। इतने छोटे बच्चे क्या सीखेंगे? कहीं माता-पिता अबोध बच्चों को वहाँ भेजकर अपना पिंड छुड़ाने का काम तो नहीं कर रहे? इन मासूमों से उनका बचपन छीनकर आखिर हासिल क्या हो पाएगा?
यदि छोटे बच्चे से पूछो कि क्या वह स्कूल जाएगा? तो प्रायः बच्चे एकदम इन्कार देते हैं कि उन्हें स्कूल नहीं जाना। इसका कारण शायद माता या घर से दूर होना होता है। हो सकता है उनके मन मे घर से बाहर जाने पर असुरक्षा की भावना आ जाती हो।
वे मासूम बेचारे अपने माता-पिता की उच्च महत्त्वाकाँक्षाओं के कारण ही अपना स्वाभाविक जीवन जी ही नहीं पा रहे हैं। इसका एक कारण शायद आज हर क्षेत्र में होने वाला कम्पीटिशन ही है। माता-पिता जो योग्यता अपने जीवनकाल में प्राप्त नहीं कर पाए उसे बच्चों के माध्यम से पाना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि वे अपने सपने बच्चों से पूरा होते देखना चाहते हैं। सभी माता-पिता चाहते हैं कि उनका बच्चा कैरियर बनाने में कहीं चूक न जाए। वह उच्च शिक्षा ग्रहण करके अच्छी नौकरी करे, जहाँ उसे खूब सारा वेतन मिले। यह सोच बहुत ही अच्छी है कि उनके बच्चे समर्थ बनें।
इसके लिए बच्चे का बचपन नहीं छीनना चाहिए। उसे पैदा होते ही गौर-गम्भीर बना दिया जाए कि वह हँसना-बोलना ही भूल जाए। उनका सारा समय स्कूल जाने और फिर घर आकर ट्यूशन पढ़ने जाने में निकल जाता है और जो थोड़ा बहुत समय बचता है वह टी वी देखने या विडियो गेम खेलने में निकल जाता है।
आऊटडोर गेम खेलने का समय भी आज बच्चों को नहीं मिल पाता जो उनके स्वास्थ्य के लिए बहुत आवश्यक है। इससे उनका तन और मन दोनों स्वस्थ रहते हैं। मुझे याद है कि बचपन में हम स्कूल से लौटकर शाम के समय घर के बाहर घण्टों खेला करते थे।
बच्चों पर पढ़ाई का बोझ तो दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। उनके बस्ते का भार भी बहुत अधिक होता है जो उनके लिए परेशानियों का कारण बन रहा है। आज यह माँग बड़े जोर शोर से उठ रही है कि बच्चों पर पढ़ाई और बस्ते का बोझ कम किया जाए।
आजकल बेबी शो आदि कई तरह के कम्पीटिशन चल रहे हैं। टी वी आग में घी डालने का कार्य कर रहा है। वहाँ डाँस शो, गायन प्रतियोगिता, खाना बनाने की महारत को परखना, जी के क्विज आदि शो चल रहे हैं। इसलिए हर माता-पिता इसे भी अपना सपना बनाते जा रहे हैं। बच्चों पर यह दबाव भी रहता है कि इनका प्रशिक्षण लेकर इन प्रतियोगिताओं में भाग लें।
इन सबसे बढ़कर पढ़ाई में अंक कम नहीं आने चाहिए। उच्च शिक्षा के लिए यदि 98 या 99 प्रतिशत अंक न आएँ तो बच्चों की जान पर बन आती है। जो बच्चे इस प्रैशर को झेल नहीं पाते वे आत्महत्या जैसा घृणित कार्य कर बैठते हैं।
इसीलिए आज बच्चों को बीपी, शूगर, मोटापा, डिप्रेशन जैसी बिमारियाँ घेरती जा रही हैं। समय रहते इस स्थिति में सुधार न किया गया तो आने वाली पीढ़ियों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। वे शायद मशीन की तरह संवेदना शून्य बनते जा रहे हैं। ऐसी परिस्थितियाँ माता-पिता और सभ्य समाज दोनो के लिए घातक हो सकती हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 5 अक्तूबर 2016
खो रहा बचपन
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