'दीपक तले अंधेरा' हमारे सयानों ने सोच-समझकर ही यह वाक्य कहा है। दीपक जब जलता है तो चारों ओर उसका प्रकाश फैलाता है परन्तु जिस स्थान पर वह रखा जाता है यानि उसके ठीक अपने ही नीचे प्रकाश नहीं पहुँच पाता। उस स्थान पर अंधेरा ही रहता है।
इस वाक्य के पीछे के छुपे मर्म को समझना बहुत आवश्यक है। यह वाक्य हमें सोचने के लिए विवश कर देता है कि ऐसा कहने के पीछे हमारे विद्वानों की क्या सोच रही होगी? उनके समक्ष ऐसा क्या घटित हुआ होगा जिसके कारण उन्होंने अपनी ऐसी राय बनाई होगी?
इस विषय पर बहुत विचार करने के बाद मैंने यही निष्कर्ष निकाला है कि मनुष्य अपने कुटुम्बी जनों के लिए जैसे जीवन की परिकल्पना करता है अथवा जैसा समाज को बनाना चाहता है शायद अपनों को उस साँचे के अनुरूप ढाल पाने में उसे सफलता हाथ नहीं लग पाती।
बहुत बार ऐसा भी देखा गया है कि समाज सुधार करने वालों के अपने बच्चे राह भटककर गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं। इसका कारण है कि वे अधिक समय तक घर से बाहर के झमेलों को सुलझाने में लगे रहते हैं। उन्हें निपटाने में इतना व्यस्त रहते हैं कि घर और बच्चों का उन्हें होश ही नहीं रहता।
अपने घर-परिवार और बच्चों को वे उतना समय नहीं दे पाते जितना उनके लिए आवश्यक होता है। घर में थोड़ा-सा समय रहकर अपने स्वयं के बच्चों को संस्कारित करने का ख्याल ही उनके मन से शायद निकल जाता है। अथवा वे ऐसा ही मानकर चलते हैं कि उनके घर के सदस्य तो कोई गलत कार्य कर नहीं सकते।
माता-पिता यदि बच्चों को अपने पास बिठाकर संस्कारित नहीं कर पाएँगे तो उनका भटकना तो स्वाभाविक ही है। परन्तु यदि उन पर सस्कारों का अंकुश ही नहीं रहेगा तो वे अपनी मनमानी निश्शंक या निडर होकर करते रहेंगे। मनमानी करते हुए वे कहाँ तक पहुँच जाएँगे इस विषय में कोई कुछ भी नहीं कहने में समर्थ नहीं है।
इतिहास के पन्ने खंगालने पर हमें इस उक्ति को चरितार्थ करते हुए बहुत से ऐसे उदाहरण मिल जाएँगे जहाँ महान साम्रज्यों को उनके उत्तराधिकारियों द्वारा बरबाद कर दिया गया।
आज भी समाचार पत्रों अथवा टीवी चैनलों में सुर्खियाँ बटोरते हुए उदाहरणों की कमी नहीं है जहाँ बड़े-बड़े पदों पर विराजमान और न्यायालय में न्याय करने वालों के बच्चे कार चोरी जैसी वारदातों को अंजाम देते हैं या अन्य कुकर्म करते हुए पकड़े जाते हैं। शिक्षाविदों के बच्चे किसी भी कारण से पढ़ने से वंचित रह जाते हैं।
इसी प्रकार अहिंसा का पाठ पढ़ाने वालों के बच्चे हिंसक प्रवृत्ति के हो जाते हैं। समाजसेवियों के घरों के बच्चे भी नशीले पदार्थों का सेवन करने बन जाते हैं। दूसरों को धर्म का उपदेश देने वालों के यहाँ भी अधर्मी जन्म ले लेते हैं। देशभक्तों की सन्तानें देशद्रोही हो सकती हैं। ईमानदार लोगों के उत्तराधिकारी समय के साथ बहते हुए भ्रष्टाचारी, रिश्वतखोर और दूसरों का गला काटने वाले बन जाते हैं।
समाज को प्रकाशित करने में जुटे लोग यदि अपने घर-परिवार में इच्छित सुधार कर लें तब लिए 'दीपक तले अंधेरे' वाली यह उक्ति उनके लिए अनुपयोगी सिद्ध हो सकती है अन्यथा दीपक तले अंधेरा तो वास्तव में होता ही है इसे झुठलाया नहीं जा सकता।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 29 अक्तूबर 2016
दीपक तले अँधेरा
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