हमारा घर हमारे लिए सुरक्षा कवच होता है। यहाँ आकर हम दिनभर की थकान से मुक्त होकर तरोताजा हो जाते हैं। घर में पलक पाँवड़े बिछाए हमारे अपने दिन-रात हमारी प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं। उन्हें हमारी चिन्ता रहती है। इसलिए वे हमारी खोज-खबर रखना चाहते हैं। अपनों का साथ हर मनुष्य के लिए सदा ही बहुत आनन्ददायक होता है।
वे लोग बहुत दुर्भाग्यशाली होते हैं जिन्हें कोई भी नहीं पूछता। कोई भी उनकी प्रतीक्षा में बैठा नहीं होता। वे तरसते हैं कि कोई उनका हाल-चाल पूछे, कोई उनकी देखभाल करे, उनसे जब गलती हो जाए तब उन्हें जी भर कर डाँटे-फटकारे। उनके प्रति अपनेपन का भाव रखे।
यह सब अपना-अपना भाग्य होता है कि किसी की सभी इच्छाएँ स्वतः ही पूर्ण हो जाती हैं और कोई आजन्म तरसता रह जाता है कि कोई तो होता जो उसका अपना कहलाता।
इनके विपरीत कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिनकी परवाह करने वाले होते है और वे उससे परेशान होकर चिढ़ जाते हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि मानो उनकी आजादी पर प्रहार हो रहा है और इससे उनकी जिन्दगी नरक बनती जा रही है। वे किसी के प्यार व अपनेपन का सम्मान करना ही नहीं जानते। पता नहीं किस अहंकार के नशे में रहते हैं। फिर धीरे-धीरे उनके रूखे-रूखे व्यवहार तथा दिन-प्रतिदिन की खिचखिच से तंग आकर परिवारी जन उनकी परवाह करना छोड़ देते हैं।
एक समय ऐसा भी आता है जब वे परेशानियों में डूबे होते हैं और उन्हें किसी सहारे अथवा कन्धे की आवश्यकता होती है, तब वह उपलब्ध नहीं होता। उस समय उन्हें अहसास होता है कि जीवन में कितनी बड़ी भूल कर दी है उन्होंने। उस समय बस पश्चाताप करना ही शेष बचता है।
प्रयत्न यही करना चाहिए कि अपने घर को घर बनाया जाए, उसे ईंट-पत्थरों का मकान न बनने दिया जाए। घर के सभी सदस्य मिलकर रहें, उनमें परस्पर भाईचारा होना चाहिए।
यदि वह घर केवल मकान या बिल्डिंग ही बनकर रह जाएगा तो वहाँ रहने वाले सभी सदस्यों की संवेदनाएँ मृतप्राय हो जाएँगी। वहाँ प्राय: झगड़े होते रहते हैं। कोई किसी की बात नहीं सुनता। सभी लोग अपनी मनमानी करते रहते हैं। यह किसी घर के लिए कभी अच्छी स्थिति नहीं हो सकती।
समय रहते यदि मनुष्य चेत जाए तो वह बहुत-सी समस्याओं से छुटकारा पाने में समर्थ हो सकता है। अपनों के विषय में सोचना, उनकी चिन्ता करना किसी भी तरह से उनके मौलिक अधिकारों का हनन करना नहीं कहलाता। इसे दूसरी तरह से मानना चाहिए। पूरा शहर बसे पर कोई यह सोचने का कष्ट नहीं करता कि हम कैसे हैं? हम स्वस्थ हैं या नहीं, हम भूखे सो रहे हैं या पेटभर खाना खा लिया है। कोई अपना होगा तो हमारी परेशानी में दस बार आकर हमें पूछेगा। हमारी परेशानियों को बाँटने की कोशिश करेगा ताकि हम कष्ट से मुक्ति पा सकें।
सभी सुधी मित्र मेरी इस बात से सहमत होंगे कि घर में रहने वालों में सदा परस्पर प्यार होना चाहिए, एक-दूसरे की सुख-दुख में परवाह करने वाले होने चाहिएँ। घर के सभी सदस्य आपसी सामञ्जस्य से रहें। छोटे बड़ों का सम्मान करें और छतनार वृक्ष की भाँति बड़ों की छत्रछाया छोटों को मिलती रहे। बिना हील हुज्जत के एक-दूसरे की बातों को समझें और मान लें।
ऐसा ही घर स्वर्ग के समान सुन्दर व सुखदायी होता है जिसकी शीतल छाया अपने पास से गुजरने वालों को भी ठंडक देती है। ऐसे परिवार के लोग सबकी प्रशंसा का कारण बनते हैं। वहाँ यदि किसी कारणवश सुविधाओं की कमी हो तो भी किसी को कानोंकान भनक तक नहीं लगती। सुख हो या दुख हर परिस्थिति में वे सभी एकसमान रहकर समय के गुजर जाने की प्रतीक्षा करते हैं।
ईश्वर से यह प्रार्थना है कि ऐसा घर-परिवार रूपी सुरक्षा कवच सभी को दे जिसमें रहते हुए हर मनुष्य सुख, शान्ति व समृद्धि का उपभोग करे।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 30 सितंबर 2019
घर सुरक्षा कवच
रविवार, 29 सितंबर 2019
डर के आगे जीत
हम अपने आसपास देखते हैं कि हर मनुष्य को किसी-न-किसी कारण से डर लगता है। उसे डर क्यों लगता है? वह किससे डरता है? क्या वह छोटा बच्चा है जिसे डर लगता है? ये सभी प्रश्न बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं और विचारणीय भी।
अब हम यह विचार करते हैं कि बड़े लोगों को डर क्यों लगता है? उसे डर तब लगता है जब वह अपनी घर-परिवार की और समाजिक जिम्मेदारियों से बचता है। घर के आवश्यक कार्यों अथवा दायित्वों को भी भूल जाता है। अपने कार्यक्षेत्र के दैनन्दिन कार्यों में असावधानी के कारण गलतियाँ कर बैठता है। इसलिए नौकरी खोने से डरता है। व्यापार में घाटा होने या उसके डूब जाने से डरता है। हड़ताल के कारण बेरोजगार होने से डर जाता है।
वह हर उस इन्सान से डरता है जिसके प्रति अपराध करता है। अपने घर-परिवार के सदस्यों, अपने बॉस, राज्य, न्यायालय, पुलिस, इन्कमटैक्स, एक्साइज आदि के फेर से डरता है। धर्म भीरू होने के कारण वह धार्मिक कार्यों का निष्पादन न कर पाने के कारण ईश्वर से डरता है।
अपने अधिकारों के लिए हर कदम पर हंगामा करने वाला मनुष्य स्वयं अपने ही कर्त्तव्यों से मुँह मोड़ लेने में परहेज नहीं करता। अपने कार्यों में मनुष्य बहुत मजे से कोताही करता है, फिर जब उस कार्य का परिणाम आने का समय होता है, तब वह आने वाली असफलता के कारण भयभीत होता है।
कोई ऊँचाई से नीचे गिर जाने से डर से ऊँचाई वाले स्थानों या पर्वतों पर नहीं जाता है। कोई पानी में डूब जाने के डर से नदी-समुद्र में नहीं जाता। आग से जल जाने का भय उसे सताता है। प्राकृतिक कोप- बादल फटना, आँधी-तूफान, बाढ़, भूकम्प आदि से मनुष्य सदा ही डरता रहा है।
इनके अतिरिक्त सड़क पर चलते गाड़ी की अथवा गाड़ी से दुर्घटना का डर उसे सताता है। सोचने की बात यह है कि जब इतना बड़ा मनुष्य डरने लगे तब हमें क्या उपाय करना चाहिए? उसे यदि समझाएँगे तो काट खाने को दौड़ेगा। मजे की बात यह है कि वह अपनी गलतियों को जानता है, पर फिर भी अनजान बने रहने का नाटक करता है।
बच्चे जब किसी भी कारण से डरते हैं, तो हम उन्हें निडर बनने के लिए प्रेरित करते हैं। उन्हें साहसी लोगों के किस्से सुनाकर उत्साहित करते हैं। उन्हें आश्वस्त करते हैं कि हम उनके साथ हैं इसलिए वे न डरें और बहादुर बनें।
एक आयु प्राप्त मनुष्य तो कोई छोटा बच्चा नहीं है कि जब वह डर जाए तब उसे समझा-बुझा दिया जाए अथवा डाँट-डपट देने से उसके मन से डर निकल जाएगा। अब पुचकारने या दुलारने वाली उसकी आयु बीत चुकी है।
मनुष्य अपने डर पर विजय कैसे पा सकता है? इसका सरल-सा उपाय है। मन से डर को निकाल भगाने के लिए किसी भी प्रकार के प्रलोभन से दूर रहे। अपने सभी दायित्वों का निर्वहण दक्षता से करे। अपने कार्यों में सदा पारदर्शिता यानि सच्चाई व ईमानदारी लाए। सकारात्मक दृष्टिकोण रखना आवश्यक है।
इन सबसे बढ़कर ईश्वर की शरण में जाना चाहिए जिससे मनुष्य के पास किसी प्रकार का डर न आता है और न ही उसे सताता है। मनुष्य को मानसिक व आत्मिक बल उस मालिक की आराधना करने से ही मिलता है।
कहते हैं- 'डर के आगे जीत है।' अत: डर को वश में करके मनुष्य को आगे बढ़ जाना चाहिए। इसी में समझदारी है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 28 सितंबर 2019
दैवी शक्ति को पहचानो
दैवी शक्तियाँ हर मनुष्य की सहायता करती रहती हैं, परन्तु सभी मनुष्य उस दैवी शक्ति को पहचान नहीं सकते। उसे जानने और समझने के लिए मनुष्य को भौतिक नहीं ज्ञान चक्षुओं की आवश्यकता होती है। ईश्वर की आराधना श्रद्धा और सच्ची भावना से करनी होती है। मनुष्य उस ईश्वर की पूजा-अर्चना में जितना अधिक लीन होता जाता है उतनी ही उसकी शक्तियाँ बढ़ती रहती हैं। ऐसे व्यक्ति को ही पता चलता है कि दैवी शक्ति उसके आसपास ही है, और वह सुरक्षित है।
संसार में बहुत से लोगों को दैवीय सहायता मिलती है। अपने शुभकर्मों के अनुसार किसी को अधिक सहायता मिलती है, तो किसी को कम। इसी तरह कुछ लोगों के माध्यम से दैवीय शक्तियाँ कुछ विशेष कार्य करवा लेती हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि साधारण व्यक्ति कैसे पहचान सकता है कि दैवीय शक्तियाँ उसकी मदद कर रही हैं? उसकी पूजा-अर्चना का कोई असर भी हो रहा है?
दैवीय शक्ति स्वयं प्रकट होकर इसका बोध नहीं करवाती, बल्कि संकेतों के माध्यम से इसकी पहचान कर सकते हैं। सभी जानते हैं कि जो व्यक्ति दूसरों के दुख को समझता है, बुराइयों से दूर रहता है, नकारात्मक विचार अपने मन में नहीं आने देता और नियमित अपने इष्ट की आराधना करता हुआ परोपकार के कार्य में लगा हुआ है, तो निश्चित ही दैवीय शक्तियाँ उसकी सहायता करती हैं। इस बात को सदा ही स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्य चौबीसों घण्टे ईश्वर के सी.सी.टी.वी. कैमरे की सीमा में रहता है।
मनीषी कहते हैं कि प्रतिदिन ब्रह्म मुहूर्त में यानी रात के तीन से पाँच के बीच अचानक ही खुल जाती हैं, तो निश्चित ही दैवीय शक्तियाँ साथ हैं। यदि बचपन से लेकर युवावस्था तक मनुष्य इस समय जागता रहा है, तो दैवीय शक्तियाँ उस व्यक्ति के माध्यम से कुछ करवाना चाहती हैं। वे उस मनुष्य को पुण्यात्मा समझकर यह संकेत दे रही हैं कि अब उठ जाओ, इस जीवन को सोने में व्यर्थ न गँवाओ। इस अमृतवेला में ही उठकर साधक साधना करते हैं।
यदि स्वप्न में किसी देव स्थान में जाना हो या देवदर्शन होता है या फिर देवी, देवताओं से वार्तालाप करते हैं, स्वयं को आकाश में उड़ते देखते हैं, तो उस मनुष्य पर दैवीय शक्तियों की विशेष कृपा हैं। स्वप्न में हो या वैसे ही भविष्य में घटने वाली घटनाओं का पूर्वाभास भी मनुष्य को दैव कृपा से होता है। यदि पति-पत्नी, सन्तान और परिजन आज्ञाकरी हों और परस्पर सामञ्जस्य से रहते हैं, तो प्रभु उस मनुष्य पर दयालु है।
जीवन में अचानक ही लाभ प्राप्त होना, बाधा रहित कार्य सम्पन्न होना और मनचाहा सरलता से मिल जाना भी किसी दैवी चमत्कार से कम नहीं होता। रात्रि में गहरी नींद में सोते हुए यदि कोई आवाज दे और मनुष्य अचानक उठकर बैठ जाए, कभी ऐसा प्रतीत हो कि किसी ने शरीर पर थपथपाया है, तो यह सब भी दैवी शक्ति का ही कार्य होता है। वह इसी प्रकार अपनी उपस्थिति का अहसास मनुष्य को करवाती रहती है।
घर में बैठे हुए बिना किसी कारण के अपने आसपास सुगन्ध का अहसास हो अथवा पूजा करते समय अचानक सुहानी हवा का झोंका या प्रकाश पुञ्ज दिखने से शरीर में सिहरन दौडऩे लगे या धरती पर रहते हुए आसपास बादल या ठण्डी हवा का आनन्द आए, तो अलौकिक शकि पास ही है। ऐसा अधिक पूजा-अर्चना करने वाले व्यक्ति के साथ होता है।
कभी-कभी अचानक ही तीव्र प्रकाश दिखाई दे या सबके बीच में बैठे हुए भी केवल अपने कानों में सहसा मधुर संगीत या मन्त्रपाठ या सीटी सुनाई दे, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होती। निरन्तर प्रभु का स्मरण करने वाले दैवी शक्तियों के बिल्कुल करीब रहते हैं।
यदि ईश्वरीय शक्ति का अनुभव करने की मन में लालसा हो, तो अनवरत ईश की आराधना में मन लगाना आरम्भ कर देना चाहिए। इन अनुभवों का लाभ मनुष्य तभी ले सकता है, जब वह उस मालिक का सान्निध्य करे। तब वह परमेश्वर की अनुकम्पा प्राप्त कर सकता है। तभी उसका इहलोक और परलोक में उद्धार हो सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 27 सितंबर 2019
ईश्वर से दूरी
जितना हम ईश्वर से दूर होते चले जाते हैं, उतना ही कष्ट उठाते हैं। उसके पास जाने से मनुष्य उस मालिक का प्रिय बन जाता है। संसार में भी प्रायः ऐसा होता है कि जिस रिश्ते-नाते के हम अधिक पास रहते हैं, उनसे हमारा प्यार प्रगाढ़ होता है। कितने भी सगे रिश्ते क्यों न हो, यदि उनसे दूरी बनाकर रखी जाती है, तो वहाँ आत्मीयता कम हो जाती है। इस प्रकार दूरी रिश्तों में भी दिखाई पड़ती है और समीपता भी देखने को मिलती है।
हम सभी लोग कभी-न-कभी बस में यात्रा करते हैं। कभी यह यात्रा कम दूरी की है और कभी दूर जाता होता है। बस की सबसे पीछे वाली सीट पर जो लोग बैठते हैं, उन्हें अपेक्षाकृत अधिक झटके लगते हैं। बस में आगे बैठने वालों को उन झटकों का बिल्कुल पता ही नहीं चलता। अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि इस विपका विपरीत अवस्था का कारण क्या है?
अब बस जब एक है, तो फिर उसका चालक भी सब सवारियों के लिए एक ही होगा। उस बस की गति भी सबके लिए एकसमान ही होती है। हम कह सकते हैं कि जब बस चलेगी तो धक्के पीछे की ओर अधिक लगते हैं या गाड़ी के उछलने का प्रभाव पीछे की सीट पर बैठे लोगों पर अधिक होता है। इस तरह बस के चालक से सवारियों की जितनी अधिक दूरी होगी, उतने ही यात्रा में उन्हें अधिक धक्के सहन करने पड़ेंगे।
यह संसार एक गाड़ी की तरह ही है। हम मनुष्य इसमें सवार यात्री हैं। इस गाड़ी को चलाने वाला यानी चालक परमपिता परमात्मा है। मनुष्य अपने जीवन के सफर में मानो एक गाड़ी में बैठा हुआ है। जीवन की गाड़ी के चालक परमेश्वर से उसकी दूरी जितनी अधिक होगी, उसे अपनी जिन्दगी में उतने ही अधिक झटके खाने पड़ते हैं। कहने का तात्पर्य मात्र यह है कि ईश्वर के समीप रहने वालों को भी दुख और कष्ट आते अवश्य हैं। परन्तु उनका ईश्वर पर अटूट विश्वास होता है, इसलिए उन्हें ये कष्ट आहत नहीं कर पाते।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसे लोगों को द्वन्द्व सहन करने वाला समदर्शी कहा है। इसके विपरीत उस ईश्वर से दूरी बनाकर रखने वाले छोटे से कष्ट के आने पर रोने-चिल्लाने लगते हैं। यहाँ एक उदाहरण लेते हैं। बिजली का कार्य करने में दक्ष व्यक्ति जब किसी उपकरण को ठीक करता है, तो उसे बिजली के छोटे-मोटे झटके लगते रहते हैं। वह उनकी परवाह ही नहीं करता। पर जो इस कला में पारंगत नहीं है अथवा इससे दूर है, तो उसे बिजली का जरा-सा भी झटका सहन नहीं होगा। वह एकदम चिल्लाने लगेगा।
मनुष्य को अपनी व्यस्त दिनचर्या में से कुछ समय निकालकर अपने आराध्य के समीप बैठना चाहिए और उससे अपने मन की बात साझा करनी चाहिए। जो भी शिकवा-शिकायत हो, उसे अपने मालिक से करनी चाहिए, दुनिया से नहीं। इस प्रकार प्रभु के समीप जाने से एक अप्रत्याशित-सा चमत्कार मनुष्य अनुभव करता है। उसमें एक नई प्रकार की ऊर्जा आने लगती है। उसे आत्मिक और मानसिक बल मिलता है
तब उसे छोटे-मोटे सांसारिक झटकों से कोई अन्तर नहीं पड़ता। न ही वह इनसे घबराकर रोता-चिल्लाता है। वह केवल अपनी ही मस्ती में रहता है।
दुनिया के मित्रों से हम बहुत कुछ देते लेते हैं, परन्तु परमात्मा ऐसा मित्र हैं जो कुछ लेता नहीं, बस देता है रहता है। उसके लिए केवल एक ही शर्त होती है कि मन से, श्रद्धा से उसका स्मरण करना। मनुष्य को ऐसे अच्छे और सच्चे साथी का हाथ सदा थामे रखना चाहिए। उससे विमुख होने के विषय में मनुष्य को कदापि सोचना ही नहीं चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 26 सितंबर 2019
सब प्रभु का
कहने मात्र के लिए इस संसार में सब कुछ हमारा है। हमारे माता-पिता, भाई-बन्धु, नाते-रिश्तेदार सभी हमारे हैं। परिश्रम से अर्जित धन-वैभव, उच्च शिक्षा, योग्य सन्तान, गाड़ी-बंगला, यह सम्माननीय पद भी तो हमारे अपने हैं। देखा जाए तो ये सब हमें पूर्वजन्मों के पुण्यकर्मों के कारण कुछ निश्चित समय के लिए मिलते हैं। उसके पश्चात ये सभी हमारी आँख बन्द होते ही पराए हो जाते हैं।
ये सभी हमारे होते हुए भी हमारे नहीं हैं। यह एक गहन रहस्य है, जिसकी खोज मनुष्य को करनी है। उसे इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ निकलना है, जो मानो तो बहुत ही कठिन है। इसका उत्तर उसे न जंगलों में भटकने से मिलेगा, न तथाकथित गुरुओं के पास मिलेगा, न तान्त्रिकों-मान्त्रिकों के पास मिलेगा और न ही तीर्थों की खाक छानने से मिलेगा। अपने घर में शान्त मन से बैठकर ईश्वर का ध्यान लगाने पर मिलेगा।
असार संसार में मनुष्य का अपना कुछ भी नहीं है। जो भी उसके पास है, वह सब उस मालिक का आशीर्वाद है। इसी सत्य को उजागर करती हुई, कहीं पढ़ी गई इस बोधकथा को संशोधन के साथ प्रस्तुत कर रही हूँ।
एक बार श्रीकृष्ण एक भक्त के घर स्वयं पधारे। भक्त से भगवान ने पूछा, "ये घर किसका है?"
भक्त बोला, "प्रभो, आपका है।"
भगवान ने पूछा "यह सुन्दर-सी गाड़ी किसकी है?"
भक्त ने उत्तर दिया, "आपकी है मेरे दाता।"
फिर श्रीकृष्ण ने हर एक वस्तु के बारे में उस भक्त से पूछा। भक्त का एक ही उतर होता, "आपकी है मालिक।"
यहाँ तक घर के हर सदस्य के लिए पूछा, तब भी भक्त का वही जबाब होता, "आपके हैं दाता।"
उन्होंने उससे पूछा, "तेरा यह शरीर किसका है?"
इस पर भी भक्त ने कहा, "आपका है मेरे मालिक।"
फिर घर के पूजा स्थान पर जाकर श्रीकृष्ण जी ने अपनी तस्वीर की ओर इशारा करते हुए पूछा, "यह किसकी तस्वीर है?"
भक्त की भक्ति की पराकाष्ठाअब देखिए। भक्त अपनी आँखों में आँसू लिए हुए बोला, "बस यही मेरे हैं, बाकी सब आपका है भगवन।"
मनुष्य का यह शरीर भी उसका अपना नहीं है। वह भी किराए का है। जब उसमें से प्राण निकल जाते हैं, तब उसके मेहनत से बनाए घर में उसके प्रियजन नहीं रखने देते। उसकी अपनी कहि जाने वाली यह धन-दौलत, उसका मन और प्राण सब कुछ उस प्रभु का है। इस संसार में मनुष्य का कुछ भी नहीं है, पर फिर भी मेरा-मेरा करते हुए वह नहीं थकता।
सारा समय वह अपनी त्योरियाँ चढ़ाकर नखरे से बात करता है, मानो वह बात करके दूसरों पर कोई अहसान कर रहा हो। उसे यह नहीं पता कि अभी घमण्ड में चूर वह आसमान पर उड़ रहा है और अगले ही पल उसकी डोर कटने वाली है। तब वह कहीं का भी नहीं रह जाएगा। उसे पानी देने वाला भी कोई नहीं रहने वाला होगा। अतः मनुष्य को हर कदम फूँक-फूँककर रखना चाहिए।
मनुष्य को अपनी हर वस्तु यानी धन-वैभव, सुन्दरता, जवानी, ज्ञान, उच्च पद आदि सबका अहंकार छोड़कर प्रभु की ओर ध्यान करना चाहिए। उसी की शरण में जाना चाहिए। उसे सदा यह स्मरण रखना चाहिए कि वह ईश्वर के हाथों की मात्र एक कठपुतली है। जब चाहे वह उसकी डोर को कस सकता है और जब चाहे उसे ढीला छोड़ सकता है। मालिक चाहे तो वह सभी कार्य कर सकता है, अन्यथा अपना हाथ भी नहीं हिला सकता।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 25 सितंबर 2019
तथाकथित धर्मगुरु
बड़े आश्चर्य की बात है कि स्वयं को धर्मगुरु मानने वाले स्वयं को ही नहीं पहचाते। आम साधारण इन्सान इनकी चालबाजियों को किसी प्रकार नहीं समझ सकता। दुनिया को अन्धविश्वास में उलझाकर धन, भूमि, स्वर्ण और चाँदी आदि को बहुत ही सहजता से वे दान के नाम पर ले लेते हैं। मजे की बात यह है कि दुनिया को अपरिग्रह का पाठ पढ़ाने वाले ये, इस संसार की सारी दौलत समेट लेना चाहते हैं। मेरे विचार में ऐसे धूर्त लोग कदापि सन्त-महात्मा की श्रेणी में नहीं आ सकते।
इन तथाकथित गुरुओं में भी होड़ लगी रहती की किसके आश्रम अधिक है और किसकी सम्पत्ति ज्यादा है। ऐसे लोग जन साधारण को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। इनकी भी ये दुकानें ही हैं, जहाँ लेन देन और मोलभाव होते हैं। ये दो लोगों को मिलाने या उनके सौदे करवाने का काम करते हैं। उन दोनों पार्टियों से भी अपना कमीशन खा जाते हैं। जो कोई उनका विरोध करने का प्रयास करता है, उसे यातनाएँ देते है।
ये सब मैं यूँ ही नहीं कह रही हूँ, अपितु पिछले दिनों न्याय-व्यवस्था के लपेटे में आए हुए कुछ तथाकथित गुरुओं की रंगरलियों, नृशंसता आदि की पोल खोलती हुए ये खबरें टेलीविजन, समाचार पत्रों व सोशल मीडिया में कई दिनों तक लगातार प्रकाशित होती रही थीं। ये सब जग जाहिर है, इसमें कुछ भी छिपा हुआ नहीं है। इतना सब प्रकाश में आने पर भी लोग यदि अन्धे और बहरे बन जाएँ, तो उनका रक्षक वह मालिक ही है।
सन्त-महात्मा वे होते हैं, जिनका आचार-व्यवहार निष्कलंक होता है। वे किसी से कुछ पाने की अपेक्षा नहीं रखते। बल्कि जितना हो सके समाज को देते हैं। न तो उनके मन में संग्रह करने की भूख होती है और न ही समाज को दिग्भ्रमित करने की दुष्प्रवृत्ति। वे सहृदय और परोपकारी जीव होते हैं जिन पर आँख बन्द करके विश्वास किया जा सकता है।
यह सच है कि हम किसी का भाग्य नहीं बदल सकते, लेकिन अच्छी प्रेरणा देकर उसका मार्गदर्शन कर सकते हैं। यही कार्य सच्चे सन्त करते हैं। ईश्वर का भी यही कथन है कि अवसर मिलने पर जीवन में किसी का सारथी बन जाना, पर स्वार्थी मत बनना। इन तथाकथित धर्मगुरुओं के पास जाने के स्थान पर धैर्य के साथ प्रतीक्षा करने वालों के पास उनकी मनचाही हर वस्तु उचित समय पर किसी-न-किसी तरीके से पहुँच जाती है। इसलिए वे इस तरह के अपराधों से परे रहते हैं।
धर्म हमें अनुशासित करता है-
लोभोमूलमनर्थनाम्।
अर्थात् लोभ अनर्थों का मूल है या कारण है।
इन लोगों के लोभ की यह पराकाष्ठा है कि ये रँगे सियार रूपी धर्मगुरु, धर्म का लबादा ओढ़कर अधर्म के मार्ग पर चलकर अपने निजी खजाने भरते में लगे रहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो वे स्वर्ग-सी सुन्दर इस धरती को बेरहमी और बेशर्मी से लूटने में लगे हुए हैं। हैरानी की बात है कि इतना सब कुछ वे आसानी से हजम भी कर जाते हैं, एक डकार तक नहीं लेते। मजे की बात है कि दूसरों को लूटने वाले ये दुष्ट किसी पर विश्वास नहीं करते। इसीलिए अपने आश्रमों में स्थान-स्थान पर सी. सी. टी. वी. कैमरे लगवाकर रखते हैं।
इन लोगों को यदि परस्पर झगड़ते हुए सुनो, तो कानों में अँगुलियाँ दबानी पड़ जाती है। ये ऐसी ऐसी गालियाँ देते हैं, जो हम सांसारिक लोग भी शायद नही देते होंगे। बात-बात पर इनके हथियार निकल आते हैं। मैं सुधीजनों से बस इतना ही आग्रह करना चाहूँगी कि जहाँ तक हो सके धर्म के इन सौदागरों से बचकर रहने का प्रयास करना चाहिए। अपने घर में शान्त मन से बैठकर ईश्वर का स्मरण करना ही श्रेयस्कर होता है। बाद में पश्चाताप करने से अच्छा है पहले ही सम्हल जाया जाए।
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