मंगलवार, 10 सितंबर 2019

प्रेम

प्रेम के बिना संसार नहीं चल सकता। यदि माता-पिता सन्तान से प्यार नहीं करेंगे तो उसका पालन-पोषण नहीं कर सकते। पति-पत्नी में प्रेम होता है, तभी संसार चलता है और गृहस्थी अच्छे से चलती है। सब कुछ प्रदान करने वाली प्रकृति से यदि मनुष्य प्यार करें तो वह उसकी मित्र बन जाती है। वह मनुष्य को बहुत कुछ देती है, पर यदि उससे छेड़छाड़ की जाए तो उसका विकराल रूप विनाशकारी बन जाता है। कहने का तात्पर्य यही है कि प्रेम से ही हम सबका अस्तित्व है।
          हर सम्बन्ध को प्रेम से ही निभाया जाता है। इसलिए जहाँ प्रेम होता है वहाँ सम्मान मिलना निश्चित होता है। जहाँ प्रेम नहीं होता वहाँ तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। वहाँ प्रायः मनमुटाव होने लगता है। फिर यही नफरत धीरे-धीरे शत्रुता का रूप ले लेती है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है। तब उसमें प्यार का बीज बोना असम्भव होने लगता है।
          प्रेम का खेल बहुत विचित्र होता है। जो व्यक्ति सबसे प्रेम का भाव रखता है, वह किसी से शत्रुता नहीं कर सकता। संसार के सभी मनुष्यों से वह प्रेम करने के साथ साथ पशु-पक्षियों से भी प्यार करने लगता है। यानी जब कोई मनुष्य सबमें प्रेम बाँटने लगता है, तो बदले में उसे भी सबसे प्रेम मिलने लगता है। उसके मित्रों की संख्या बढ़ जाती है। कहने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य जो कुछ दूसरों को देता है, बदले में उसे भी वही मिलता है। फिर वह चाहें प्रेम हो या नफरत।
          जो मनुष्य हर जीव से प्रेम करता है, उस मनुष्य को सृष्टि में चारों और प्रेम ही प्रेम बिखरा हुआ दिखाई देता है। जो उस प्रेम को अपनी पारखी नजर से देखना चाहता है। प्रेम का अर्थ है मनुष्य के मन में सबके लिए एक जैसे भाव यानी अपनत्व का भाव होना।
        दो व्यक्ति जब प्रेम सम्बन्ध बनाते हैं, तो एक-दूसरे की अच्छाइयों या बुराइयों को नजरअंदाज करते हैं। दिलों के मध्य  साझा पगडंडियों पर चलते हुए वे एक अलग ही दुनिया बसा लेते हैं। वहाँ जुबान खामोश हो सकती है, पर दिल की धड़कनें इस प्रेम के कहे-अनकहे भावों की मूक गवाह बन जाती हैं।
           यहाँ एक बात स्पष्ट करना चाहती हूँ कि मोह और प्रेम में बहुत अन्तर होता है। इस मोह के कारण यद्ध के मैदान में अर्जुन ने अपने सगे-सम्बन्धियों को देखकर हथियार डाल दिए थे। वास्तव में इस संसार में मनुष्य को बाँधकर रखने का कार्य मोह ही करता है। यह मोह मनुष्य के मन का ही एक विकार है।
         लौकिक प्रेम या सांसारिक प्रेम अपने घर-परिवार या भाई-बन्धुओं तक सीमित रहता है, जिसे मोह कह सकते है। यह मोह रूपी शत्रु हमारे अन्तस् में जड़ें जमाकर बैठ जाता है। इसलिए मनुष्य न चाहते हुए भी इस मोह के जाल में फँस जाता है। लोग इस मोह को ही प्रेम मानने की भूल कर बैठते हैं और परेशान होते रहते हैं। इस मोह के कारण व्यक्ति कभी सुखी, तो कभी दुखी होता है। मोह मनुष्य के मन में पनपने वाले द्वेष का कारक होता है।
         मनुष्य को जहाँ सुख मिलने की आशा होती है, वहाँ मोह होता है। जैसे प्रत्येक बच्चे को अपने माता-पिता से और माता-पिता को अपनी सन्तान से मोह होता है। इसी प्रकार दो प्रेमियों अर्थात् एक युवक और एक युवती जब परस्पर आसक्त होकर प्रेम करते हैं, तो वह भी एक प्रकार का मोह होता है। मनुष्य कुछ गिने-चुने लोगों या वस्तुओं को जब अपना बनाना चाहता है, उनके साथ अपना अधिकतर समय व्यतीत करना चाहता है, उसे मोह या आसक्ति ही कहते है।
         ईश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में प्रेम कहलाता है। ईश्वर से प्रेम हो जाने पर चित्त में पड़े हुए संस्कारों का नाश होता है। मनुष्य का मोह जन्म और मरण का कारण होता है। अपने अन्तस् में मनुष्य को प्रेम का इतना विकास करना चाहिए कि वह व्यष्टि(एक) से ऊपर उठकर समष्टि(सबको) को अपना बनाने में सफल हो जाए।
चन्द्र प्रभा सूद
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