मनुष्य की अज्ञ बुद्धि ईश्वर की सत्ता और उसके न्याय पद्धति को नहीं समझ सकती। भौतिक संसार में न्याय करने के लिए बहुत सी अदालतें हैं। फिर भी कई कारणों से कभी-कभी चूक हो जाती है। ईश्वर के न्यायालय में कभी, किसी तरह की कोई भी चूक होने की सम्भावना नहीं हो सकती। जिस प्रकार वह पूर्ण है, उसी प्रकार उसकी समस्त रचनाएँ भी पूर्ण है। उसके सभी कार्य कसौटी पर कसे जाने की तरह शत प्रतिशत सत्य होते हैं।
एक कथा के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं, जिसमें किसी लेखक का नाम नहीं लिखा था। किञ्चित शोधन और परिवर्तन के साथ प्रस्तुत है।
एक बार दो आदमी एक मन्दिर के पास बैठे गपशप कर रहे थे। वहाँ अन्धेरा छा रहा था और बादल मंडरा रहे थे। थोड़ी देर में वहाँ एक आदमी आया और वह भी उन दोनों के साथ बैठकर बातें करने लगा। कुछ देर बाद वह आदमी बोला कि उसे बहुत भूख लग रही है, वैसे भूख तो उन दोनों को भी लगने लगी थी।
पहला आदमी बोला, "मेरे पास तीन रोटियाँ हैं।"
दूसरा बोला, "मेरे पास पाँच रोटियाँ हैं, हम तीनों मिल बाँटकर खा लेते हैं।"
उसके बाद प्रश्न यह उठा कि आठ (3+5) रोटियाँ तीन आदमियों में कैसे बाँटी जाएँगी?
पहले आदमी ने राय दी, "ऐसा करते हैं कि हर रोटी के तीन-तीन टुकडे करते हैं, अर्थात् आठ रोटियों के चौबीस टुकडे (8X3=24) हो जाएँगे। तब हम तीनों ही आठ-आठ टुकड़े बराबर बराबर बाँटकर खा लेंगे।"
तीनों को उसकी सलाह अच्छी लगी और उन्होंने आठ रोटियाँ के चौबीस टुकडे कर दिए। प्रत्येक ने आठ-आठ रोटी के टुकड़े खाकर अपनी भूख शान्त की। फिर बारिश के कारण मन्दिर के प्राँगण में सो गए। सुबह उठने पर उस तीसरे व्यक्ति ने उपकार के लिए उन दोनों को धन्यवाद दिया और प्रेम से रोटी के आठ टुकडो़ के खिलाने के बदले उपहार स्वरूप आठ सोने की गिन्नियाँ दीं और फिर वह अपने घर की ओर चला गया।
उसके जाने के बाद पहले आदमी ने दूसरे आदमी से कहा, "चार-चार गिन्नियाँ हम दोनों बाँट लेते हैं।"
दूसरा बोला, "नहीं, मेरी पाँच रोटियाँ थी और तुम्हारी सिर्फ तीन रोटियाँ थी। अतः मैं पाँच गिन्नियाँ लूँगा, तुम्हें तीन गिन्नियाँ मिलेंगी।"
इस बात पर दोनों में बहस और झगड़ा होने लगा। इसके बाद वे दोनों ही न्याय के लिए उस मन्दिर के पुजारी के पास गए और उसे समस्या बताई तथा न्यायपूर्ण समाधान के लिए प्रार्थना की।
पुजारी बेचारा असमंजस में पड़ गया, "उसने कहा तुम लोग ये आठ गिन्नियाँ मेरे पास छोड़ जाओ और मुझे सोचने का समय दो। मैं कल सबेरे तुम लोगों को उत्तर दे पाऊँगा।"
पुजारी को दिल में वैसे दूसरे आदमी की तीन और पाँच गिन्नियों वाली बात ठीक लगी रही थी। फिर भी वह गहराई से सोचते हुए वह गहरी नींद में सो गया। कुछ देर बाद उसके सपने में साक्षात भगवान प्रगट हुए। पुजारी ने सब बातें बताई और न्यायिक मार्गदर्शन के लिए उनसे प्रार्थना की। उसने बताया, "मेरे ख्याल से तीन और पाँच गिन्नियों का बंटवारा उचित लगता है।"
भगवान मुस्कुरा कर बोले, "नहीं, पहले आदमी को एक गिन्नी मिलनी चाहिए और दूसरे आदमी को सात गिन्नियाँ मिलनी चाहिए।"
भगवान की बात सुनकर पुजारी अचम्भित हो गया और उसने अचरज से पूछा, "प्रभो, ऐसा कैसे?"
भगवन फिर एकबार मुस्कुराए और बोले, "इसमें कोई शंका नहीं कि पहले आदमी ने अपनी तीन रोटी के नौ टुकड़े किए परन्तु उन नौ में से उसने सिर्फ एक टुकड़ा बाँटा और आठ टुकड़े स्वयं खाए अर्थात उसका त्याग सिर्फ रोटी के एक टुकड़े का था इसलिए वह सिर्फ एक गिन्नी का हकदार है। दूसरे आदमी ने अपनी पाँच रोटियों के पन्द्रह टुकड़े किए। उसमें से आठ टुकडे उसने स्वयं खाए और सात टुकड़े उसने बाँट दिए। इसलिए न्यायानुसार वह सात गिन्नियों का हकदार है। यही मेरा गणित है और यही मेरा न्याय है।"
ईश्वर की न्याय का सटीक विश्लेषण सुनकर पुजारी उनके चरणों में नतमस्तक हो गया।
इस कहानी का सार यही है कि हमारा समझने का दृष्टिकोण ईश्वर के दृष्टिकोण से एकदम भिन्न होता है। हम ईश्वरीय न्याय को जानने समझने में अज्ञानी हैं। हम सभी लोग अपने त्याग का गुणगान करते है। ईश्वर हमारे त्याग की तुलना हमारे सामर्थ्य एवं भोग के अनुसार यथोचित तरीके से निर्णय करते हैं। इस बात से कोई लेना देना नहीं है कि हम कितने साधन सम्पन्न है। महत्वपूर्ण यह है कि हमारे सेवा कार्य में त्याग का कितना अंश है।
इसलिए ईश्वरीय न्याय पर कभी सन्देह नहीं करना चाहिए। वह समदर्शी है, सबको एकसमान देखता है। अतः उसके न्याय करने की प्रक्रिया हम मनुष्यों से बिल्कुल अलग है। वह मनुष्य के भाव, उसके कमाई के साधन आदि पर विचार करके ही न्याय करता है और तदनुरूप ही उसका फल देता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 24 सितंबर 2019
ईश्वर का न्याय
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