बड़े आश्चर्य की बात है कि स्वयं को धर्मगुरु मानने वाले स्वयं को ही नहीं पहचाते। आम साधारण इन्सान इनकी चालबाजियों को किसी प्रकार नहीं समझ सकता। दुनिया को अन्धविश्वास में उलझाकर धन, भूमि, स्वर्ण और चाँदी आदि को बहुत ही सहजता से वे दान के नाम पर ले लेते हैं। मजे की बात यह है कि दुनिया को अपरिग्रह का पाठ पढ़ाने वाले ये, इस संसार की सारी दौलत समेट लेना चाहते हैं। मेरे विचार में ऐसे धूर्त लोग कदापि सन्त-महात्मा की श्रेणी में नहीं आ सकते।
इन तथाकथित गुरुओं में भी होड़ लगी रहती की किसके आश्रम अधिक है और किसकी सम्पत्ति ज्यादा है। ऐसे लोग जन साधारण को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। इनकी भी ये दुकानें ही हैं, जहाँ लेन देन और मोलभाव होते हैं। ये दो लोगों को मिलाने या उनके सौदे करवाने का काम करते हैं। उन दोनों पार्टियों से भी अपना कमीशन खा जाते हैं। जो कोई उनका विरोध करने का प्रयास करता है, उसे यातनाएँ देते है।
ये सब मैं यूँ ही नहीं कह रही हूँ, अपितु पिछले दिनों न्याय-व्यवस्था के लपेटे में आए हुए कुछ तथाकथित गुरुओं की रंगरलियों, नृशंसता आदि की पोल खोलती हुए ये खबरें टेलीविजन, समाचार पत्रों व सोशल मीडिया में कई दिनों तक लगातार प्रकाशित होती रही थीं। ये सब जग जाहिर है, इसमें कुछ भी छिपा हुआ नहीं है। इतना सब प्रकाश में आने पर भी लोग यदि अन्धे और बहरे बन जाएँ, तो उनका रक्षक वह मालिक ही है।
सन्त-महात्मा वे होते हैं, जिनका आचार-व्यवहार निष्कलंक होता है। वे किसी से कुछ पाने की अपेक्षा नहीं रखते। बल्कि जितना हो सके समाज को देते हैं। न तो उनके मन में संग्रह करने की भूख होती है और न ही समाज को दिग्भ्रमित करने की दुष्प्रवृत्ति। वे सहृदय और परोपकारी जीव होते हैं जिन पर आँख बन्द करके विश्वास किया जा सकता है।
यह सच है कि हम किसी का भाग्य नहीं बदल सकते, लेकिन अच्छी प्रेरणा देकर उसका मार्गदर्शन कर सकते हैं। यही कार्य सच्चे सन्त करते हैं। ईश्वर का भी यही कथन है कि अवसर मिलने पर जीवन में किसी का सारथी बन जाना, पर स्वार्थी मत बनना। इन तथाकथित धर्मगुरुओं के पास जाने के स्थान पर धैर्य के साथ प्रतीक्षा करने वालों के पास उनकी मनचाही हर वस्तु उचित समय पर किसी-न-किसी तरीके से पहुँच जाती है। इसलिए वे इस तरह के अपराधों से परे रहते हैं।
धर्म हमें अनुशासित करता है-
लोभोमूलमनर्थनाम्।
अर्थात् लोभ अनर्थों का मूल है या कारण है।
इन लोगों के लोभ की यह पराकाष्ठा है कि ये रँगे सियार रूपी धर्मगुरु, धर्म का लबादा ओढ़कर अधर्म के मार्ग पर चलकर अपने निजी खजाने भरते में लगे रहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो वे स्वर्ग-सी सुन्दर इस धरती को बेरहमी और बेशर्मी से लूटने में लगे हुए हैं। हैरानी की बात है कि इतना सब कुछ वे आसानी से हजम भी कर जाते हैं, एक डकार तक नहीं लेते। मजे की बात है कि दूसरों को लूटने वाले ये दुष्ट किसी पर विश्वास नहीं करते। इसीलिए अपने आश्रमों में स्थान-स्थान पर सी. सी. टी. वी. कैमरे लगवाकर रखते हैं।
इन लोगों को यदि परस्पर झगड़ते हुए सुनो, तो कानों में अँगुलियाँ दबानी पड़ जाती है। ये ऐसी ऐसी गालियाँ देते हैं, जो हम सांसारिक लोग भी शायद नही देते होंगे। बात-बात पर इनके हथियार निकल आते हैं। मैं सुधीजनों से बस इतना ही आग्रह करना चाहूँगी कि जहाँ तक हो सके धर्म के इन सौदागरों से बचकर रहने का प्रयास करना चाहिए। अपने घर में शान्त मन से बैठकर ईश्वर का स्मरण करना ही श्रेयस्कर होता है। बाद में पश्चाताप करने से अच्छा है पहले ही सम्हल जाया जाए।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 25 सितंबर 2019
तथाकथित धर्मगुरु
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