श्राद्ध एक ऐसी रूढ़ि है, जिसके अनुसार मनुष्य के पितर कौवे के रूप में पितृपक्ष में आकर अपना भाग या अन्न ग्रहण करते हैं। आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने इस प्रथा का घोर विरोध किया था। उनका कथन था कि इन व्यर्थ के अन्ध विश्वासों से समाज में विकार आते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वैदिक काल में इस दुष्प्रथा का कहीं भी कोई वर्णन नहीं है। तथाकथित परवर्ती विद्वानों ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए इस कुप्रथा का विधान किया।
भाई दिनेश बरेजा की लिखी यह कहानी मेरे मन के भावों के बिल्कुल करीब है। इसलिए इस कथा को कुछ भाषागत संशोधनों के बाद आप सुधीजनों के समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ। आशा है आप इससे सहमत होंगे।
"अरे! भाई बुढापे का कोई ईलाज नहीं होता, अस्सी पार चुके हैं. अब बस सेवा कीजिये." डाक्टर पिता जी को देखते हुए बोला।
शंकर ने पूछा, "डाक्टर साहब! कोई तो तरीका होगा, साइंस ने बहुत तरक्की कर ली है।"
"शंकर बाबू, मैं अपनी तरफ से दुआ ही कर सकता हूँ। बस आप इन्हें खुश रखिए। इससे बेहतर और कोई दवा नहीं है।इन्हें लिक्विड पिलाते रहिये, जो इन्हें पसंद है खिलाइए।" डाक्टर अपना बैग सम्हालते हुए मुस्कुराया और बाहर निकल गया।
शंकर पिता को लेकर बहुत चिन्तित था। उसे लगता ही नहीं था कि पिता के बिना भी कोई जीवन हो सकता है। माँ के जाने के बाद अब एकमात्र आशीर्वाद उन्ही का ही बचा था। उसे अपने बचपन और जवानी के सारे दिन याद आ रहे थे। कैसे पिता हर रोज कुछ-न-कुछ लेकर घर में घुसते थे। बाहर हलकी-हलकी बारिश हो रही थी, ऐसा लगता था जैसे आसमान भी रो रहा हो। शंकर ने खुद को किसी तरह समेटा और पत्नी से बोला, "सुशीला! आज सबके लिए मूँग की दाल के पकौड़े और हरी चटनी बनाओ। मैं बाहर से जलेबी लेकर आता हूँ।"
पत्नी ने दाल पहले ही भिगो रखी थी। वह अपने काम में जुट गई। कुछ ही देर में रसोई से पकौड़ों की खुशबू आने लगी। शंकर भी जलेबियाँ ले आया था। जलेबी रसोई में रखकर वह पिता के पास बैठ गया। उनका हाथ अपने हाथ में लिया और उन्हें निहारते हुए बोला, "बाबा! आज आपकी पसन्द की चीज लाया हूँ. थोड़ी जलेबी खाएँगे।"
पिता ने आँखे झपकाईं और फिर वे हल्का-सा मुस्कुरा दिए। अपनी अस्फुट आवाज में बोले, "आज पकौड़े बन रहे हैं क्या?"
"हाँ बाबा, आपकी पसन्द की हर चीज अब मेरी भी पसन्द है। अरे, सुषमा जरा पकौड़े और जलेबी भी लाओ" शंकर ने आवाज लगाईं।
"लीजिए बाबू जी एक और पकौड़ा" हाथ में देते हुए उसने कहा।
"बस अब पूरा हो गया, पेट भर गया। जरा-सी जलेबी दे" पिता बोले। शंकर ने जलेबी का एक टुकड़ा हाथ में लेकर मुँह में डाल दिया, पिता उसे बहुत प्यार से देखते रहे।
"शंकर, सदा खुश रहो बेटा. मेरा दाना-पानी अब पूरा हुआ।"
शंकर ने कहा, "बाबा, आपको तो सेंचुरी लगानी है, आप मेरे तेंदुलकर हो।" आँखों में आँसू बहने लगे।
वे मुस्कुराए और बोले, "तेरी माँ मेरा पेवेलियन में इंतज़ार कर रही है, अगला मैच खेलना है। तेरा पोता बनकर आऊँगा, तब खूब खाऊँगा बेटा।"
पिता उसे देखते रहे। शंकर ने प्लेट उठाकर एक तरफ रख दी, मगर पिता उसे लगातार देखे जा रहे थे। आँख भी नहीं झपक रही थी। शंकर समझ गया कि यात्रा पूर्ण हुई ।
तभी उसे ख्याल आया, पिता जी हमेशा कहा करते थे, "मैं श्राद्ध खाने नहीं आऊँगा कौआ बनकर, जो खिलाना है अभी खिला दे।"
मंदिरों में जाते हैं, वहाँ पत्थरों की पूजा करते है, पूजा-पाठ करवाते है और वे सारी चीजे करते है, जिससे हमें लगता है कि हमारा जीवन धन्य हो जाएगा। लेकिन क्या आप जानते है कि ईश्वर मनुष्य के पास हमेशा माता-पिता के रूप में विद्यमान रहता है। बस आवश्यकता है तो उन्हें पहचानने की।
अपनी खुशियों का गला घोटकर हमारी सारी ख्वाहिश पूरी करने वाले हमारे माता-पिता ही होते हैं। उन्होंने ही हमें इस समाज में जीने का अधिकार दिलाया है। जब वे हमारे लिए इतना कुछ कर सकते है, तो क्या हम अपने माता-पिता के जीते जी उनकी सेवा-सुश्रुषा नही कर सकते।
मेरा केवल मात्र यही मानना है कि माता-पिता के जीवनकाल में उन्हें सारे सुख देना ही वास्तविक श्राद्ध है। माता-पिता का सम्मान करके उन्हें जीते जी खुशियाँ देना प्रत्येक सन्तान का कर्त्तव्य होता है। जो माता-पिता की हर इच्छा को प्रसन्नतापूर्वक पूर्ण करता है, उसका जन्म धन्य हो जाता है। मातृ-पितृभक्त श्रवण कुमार की तरह वह युगों-युगों तक इस धरती पर स्मरण किया जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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गुरुवार, 19 सितंबर 2019
कौवा बनकट खाने नहीं आऊँगा
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