जैसा देश वैसा भेष- उक्ति हमने बहुधा सुनी है। हर कथन के पीछे कोई-न-कोई सार अवश्य होता है। चाहे हम उसे समझ सकें या नहीं।
व्यक्ति किसी भी देश का निवासी हो वह अपने रंग-रूप, अपनी वेशभूषा, अपनी भाषा, अपनी धार्मिक आस्थाओं, अपने सांस्कृतिक मूल्यों और अपनी ऐतिहासिक विरासतों से ही सदा पहचाना जाता है। अफगानिस्तान, अरब आदि देशों को हम उनके वेष व भाषाओं से पहचान लेते हैं। इसी तरह अन्य देशों के नागरिकों की भी एक पहचान है जिसे उसके अनुसार हम सरलता से जान लेते हैं।
कहते हैं जिस देश में रहो वहाँ की सभ्यता व संस्कृति में रच बस जाओ। उस देश के संविधान, कानून व्यवस्था, शिक्षण व्यवस्था आदि का पालन करना चाहिए। उनके रीति-रिवाजों का सम्मान करो और मन भाएँ तो उन्हें अपना भी लो। वहाँ इस तरह घुलमिल जाओ जैसे पानी में शक्कर मिल जाती है।
यदि ऐसा नहीं कर पाओ तो उस देश हैं रहने का कोई औचित्य नहीं होता। फिर तो सारा समय अपने देश व जहाँ निवास कर रहे हैं उस देश के साथ तुलनात्मक अध्ययन में ही बीतेगा। ऐसा करके अपने लिए कष्ट व परेशानी ही जुटाई जा सकती है। सारा समय मन परेशान रहेगा उसका कोई लाभ नहीं होता।
उनकी अच्छाइयों को अपना लेना चाहिए पर दूषित विचारों व रूढ़ियों को नहीं। कहना आसान है पर कर पाना कठिन है। जो बच्चे वहाँ जन्म लेते हैं वे तो वहीं के होकर रह जाते हैं। उनका अपना देश वही होता है। दूसरे देश रहने के कारण अपने पितरों के देश से उन्हें लगाव कम होता है। हाँ जब रक्त संबंध जोर मारते हैं या माता-पिता से अपने घर-परिवार की कहानियाँ सुन-सुनकर अथवा घूमने के उद्देश्य से वे अपने देश जाते हैं। तब वहाँ सभी चेहरे उन को अनजाने दिखाई देते हैं।
अपने बंधुजनों से मिलना यथासमय होता है परन्तु उनको बंधु मानकर उनके साथ सौहार्द रखना चाहिए। वही हर समय, हर स्थिति में तत्क्षण साथ दे सकते हैं।
अपनी सांस्कृतिक जड़ें इतनी मजबूत हैं कि चाहे नौकरी, व्यापार या पढ़ाई किसी भी कारण से जो दूसरे देश जाकर रहते हैं वे उन्हें काट नहीं सकते। हमेशा अपने देश की खट्टी-मीठी यादें कचोटती रहती हैं। इसलिए वे न वे अपने देश के रह जाते हैं और न ही उस देश के हो पाते हैं जहाँ वे रहते हैं। इस तरह मनोभावनाओं व यादों की आँख-मिचौनी उनके अंतस में निरन्तर चलती रहती है।
व्यक्ति जहाँ भी रहे खुले मन से उस देश व देशवासियों को अपनाए। तभी अंतस में शांति बनी रहती है। मात्र ऊपरी दिखावे से बात नहीं बनती। वहाँ रच बस जाने अतिरिक्त उनके पास और कोई चारा नहीं बचता।
इस रचने बसने का यह अर्थ तो कदापि नहीं है कि व्यक्ति अपने जन्मजात संस्कारों को ही तिलांजलि दे बैठे या फिर उन सबको गठरी में बांधकर संदूक के अंदर सात परतों में छिपाकर रख दे। अपने संस्कारों को कभी न छोड़ते की सोचते हुए दूसरी संस्कृति के साथ अपना सामंजस्य स्थापित करना ही श्रेयस्कर होता है।
सोमवार, 11 मई 2015
जैसा देश वैसा भेष
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