चिन्ता को चिता के समान कहते हैं। चिता पर रखा शरीर एक बार जलकर नष्ट हो जाता है पर यह चिन्ता पल-पल मनुष्य को जलाती है। नराभरण ग्रन्थ कहता है-
चिन्तायाश्च चितायाश्च बिन्दुमात्रं विशेषत:।
चिता दहति निर्जीवं चिन्ता जीवन्तमप्यहो॥
अर्थात चिन्ता और चिता में केवल बिन्दु का अंतर है परन्तु चिता निर्जीव को जलाती है और चिन्ता जीवित को।
हम सब जानते हैं कि चिन्ता करने से कोई लाभ नहीं होता। इसके समान शरीर को सुखाने वाली और कोई वस्तु नहीं है। होनी तो होकर ही रहती है और हमारे कहने से वह टलने वाली भी नहीं है।
फिर भी यह इंसानी कमजोरी है जो हरपल मनुष्य को घेर कर रखती है। उसका सुख-चैन सब हर लेती है। यद्यपि घर-परिवार के सदस्यों का एक दूसरे के प्रति चिन्तित रहना उनके परस्पर प्रेम का परिचायक है। तथापि अनावश्यक चिन्ता कभी-कभी अकारण ही विवाद का रूप ले लेती है। आजकल बच्चे-बड़े सभी इसे अपने कार्यों में दखलअंदाजी समझते हैं। वे सोचते हैं कि हम समझदार हो गए हैं फिर हम किसी के प्रति जवाबदेह क्यों?
पद्मपुराण का कहना है कि कुटुम्ब की चिन्ता से ग्रसित व्यक्ति के श्रुत ज्ञान, शील और गुण उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार कच्चे घड़े में रखा हुआ जल।
चिन्ता के कई कारण हैं- बच्चों की पढ़ाई, उनका सेटल होना, शादी, स्वास्थ्य, किसी सदस्य का घर देर से आना, पड़ोसी की समृद्धि या उनके घर कोई नई वस्तु का आना, धन-समृद्धि की कमी अथवा घर में खटपट रहना आदि।
हमारे नेताओं को देखिए जिन्हें देश की बहुत चिन्ता रहती है और उस चिन्ता में घुलते हुए वे दिन प्रतिदिन दुबले होते जा रहे हैं। व्यवसायियों को हमेशा कर्मचारियों और हर प्रकार के टैक्स की चिन्ता रहती है जो स्वाभाविक भी है।
भूतकाल में जो हो चुका है उसे छोड़ देना चाहिए। उससे शिक्षा अवश्य लेनी चाहिए पर उसको पकड़कर घुलते रहना या चिन्ता करना बुद्धिमानी नहीं कहलाती।
इसी प्रकार भविष्य के गर्भ में क्या है? कोई भी सांसारिक व्यक्ति नहीं जानता। इसलिए उसे ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए। नाहक चिन्ता करके सभी परिजनों को कभी व्यथित नहीं करना चाहिए। अत: भविष्य में आने वाले संभावित अनिष्टों की चिन्ता करने वालों की शांति भंग हो जाती है।
बस केवल उसी के विषय में विचार कीजिए जो हमारे सामने प्रत्यक्ष विद्यमान है। वर्तमान की तथाकथित चिन्ता ही बहुत है संतप्त रहने के लिए।
मनुष्य को नदी की तरह गंभीर होना चाहिए। नदी को पार करने में जो मनुष्य लगा हुआ है वह जल की गहराई की चिन्ता कभी नहीं करता। उसी तरह जिस व्यक्ति का चित्त स्थिर है वह इस संसार सागर के नाना विध कष्टों का सामना करने पर भी उनसे नहीं घबराता। उनका दृढ़ता पूर्वक सामना करता है।
यह सिद्धांत हमेशा स्मरण रखिए कि समय से पहले और भाग्य से अधिक न किसी को मिला है और न ही मिलेगा। फिर हमारे कर्म प्रधान हैं जो हमें सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय, सुख एवं समृद्धि देते हैं। तो फिर चिन्ता करके बदहाल क्यों होना?
अपनी सारी चिन्ताएँ उस जगत जननी माता के हवाले करके निश्चिंत हो जाइए जैसे बच्चे अपनी माता से अपने दुख बाँट कर चैन की नींद सो जाते हैं। शेष ईश्वर सब शुभ करेगा।
शुक्रवार, 29 मई 2015
चिन्ता
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शेष ईश्वर सब शुभ करेगा।
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