आत्महत्या कायरतापूर्ण भाव है। मनुष्य किसी परिस्थिति से जब घबरा जाता है या तथाकथित रूप से मजबूर हो जाता है तो आत्महत्या जैसा घृणित कार्य कर बैठता है। हिन्दी भाषा के सुप्रसिद्ध लेखक श्री अमृतलाल नागर का कथन है-
'आत्महत्या का आवेश आँसुओं की शक्ति लेकर ही चढ़ता है।'
मनुष्य स्वयं तो आत्महत्या करके इस जीवन से मुक्त हो जाता है पर अपनों के लिए बहुत-सी समस्याएँ छोड़ जाता है। बाद में परिवारी जनों को पुलिस व कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने पड़ते हैं। समाज की दबी-छिपी फुसफुसाहट व उनकी छींटाकशी का हर पल सामना करने की मजबूरी बन जाती है। लोगों की चुभती नजरों व तीखे प्रश्नों को झेलना पड़ता है। परिवार के सदस्यों को उनका वियोग सहना होता है।
आत्महत्या करने की आज्ञा हमें परमपिता परमात्मा कभी नहीं देता। वह तो हमें जीवन देता है और हमारी हर कदम पर रक्षा करता है। हमारे इस शरीर में रहने वाला जीव उसी का ही तो अंश है। वह उसे कदापि कमजोर होते हुए नहीं देख सकता। हिन्दी भाषा के सुप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री जयशंकर प्रसाद ने कहा था-
'आत्महत्या या स्वेच्छा से मरने के लिए प्रस्तुत होना भगवान की अवज्ञा है। जिस प्रकार सुख-दुख उसके दान हैं उन्हें मनुष्य झेलता है उसी प्रकार प्राण भी उसकी धरोहर हैं।'
ईश्वर ने इस पृथ्वी पर यह अमूल्य जीवन देकर अपनी उपासना करने के लिए हमें भेजा है उसे नष्ट करने के लिए नहीं। इस तरह के घृणित कार्य करने वालों को वह कभी क्षमा नहीं करता।
हालांकि कोई भी मनुष्य अपनी इच्छा से इस खूबसूरत संसार से जाना नहीं चाहता। परन्तु कभी-कभी आर्थिक परेशानियों को वह झेल नहीं पाता। उसका दबाव इतना अधिक हो जाता है कि वह ऐसा अमानवीय कृत्य कर बैठता है।
इसके अतिरिक्त पारिवारिक व सामाजिक आवेश भी इस आत्महत्या का कारण बन जाते हैं। जैसे घर में पति-पत्नी का झगड़ा होना, घर या कार्यक्षेत्र पर कहासुनी या अपमान होना अथवा ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हो जाता है जिससे मन क्षणिक आवेश से पूर्ण हो जाता है और फिर वह इस कृत्य के लिए उकसाता है। मनुष्य उस आवेग के चलते सोचने-समझने की शक्ति खो देता है। उस समय सब समझदारी धरी रह जाती है।
यदि मनुष्य कुछ पल रुक जाए और एक बार पुनर्विचार(second thought) कर ले तो शायद आत्महत्या का कुविचार उसके मन से सदा के लिए निकल जाये। तब अपनों के बीच हंसते-खेलते जीवन व्यतीत करता।
मनुष्य को ईश्वर जितनी आयु देकर इस जगत में भेजता है उसे पूरी भोगनी होती है। यदि वह उसके विधान को कभी झुठलाता है तो मालिक उसे क्षमा नहीं करता। ऐसी मान्यता है कि जितनी आयु शेष बची होती है उतना समय उसे शून्य में भटकना पड़ता है। हो सकता है यह सत्य हो या फिर इसे भी धर्म-अधर्म के साथ जोड़ा हो ताकि लोग यह जघन्य अपराध न करें। बालरामायण में कहा है-
असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृत्ता।
तांस्ते मृत्वाभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जना:॥
अर्थात जो आत्महत्या करते हैं वे उन असूर्य लोकों में जाते हैं जो अंधकार से युक्त होते हैं।
समाज में रहते हुए सभी प्रबुद्ध जनों को सजग रहना चाहिए। जहाँ तक हो सके अपने संपर्क में आने वालों को आगाह करते रहना चाहिए ताकि इस निराशाजनक स्थिति से बचने के लिए लोगों का मानस तैयार हो। किसी के भी परिवार में ऐसी अनहोनी घटना न हो और न ही उन्हें अपने प्रिय से वियोग का दुख सहना पड़े। हर घर में सुख, शांति व समृद्धि का वास हो ऐसी प्रभु से प्रार्थना है।
सोमवार, 18 मई 2015
आत्महत्या
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