मनुष्य की सबसे पहली और बलवती कामना होती है धनवान बनने की। यह धन है कि बहुत कठिनाइयों और प्रयत्नों से पकड़ में आता है। हाथ में आते ही फिर यह फिसलने लगता है। इसका कारण है कि जब इन्सान जी तोड़ श्रम करके धन एकत्र का लेता है तो फिर वह संसार की समस्त सुविधाएँ भोगना चाहता है।
यानि रहने के लिए एक बड़ा घर, घूमने के लिए मँहगी गाड़ी, अच्छे स्कूल में बच्चों को पढ़ाना, ऐशो-आराम के सभी साधन अपने जीवन काल में जुटा लेना चाहता है। उसकी यही इच्छा होती है कि वह और उसका घर-परिवार किसी भी तरह के कष्ट का सामना न करे।
दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि उसका कमाया हुआ पैसा बोलने लगता है। यदि वह स्वयं पर नियन्त्रण रख लेता है तो सब सुविधाओं को भोगता है। परन्तु यदि उस पैसे को न सम्हाल सके तो उसका सारा कमाया हुआ धन बरबाद हो जाता है। इसके पीछे केवल यही कारण है कि पैसा अपने साथ बहुत से दुर्व्यसन लेकर आता है। इन कुटेवों में यदि वह पड़ जाता है तो सब कुछ मिट्टी में मिल जाता है। सब कुछ हारकर फिर वह सिर धुनकर पश्चाताप करता है जिसका कोई लाभ नहीं होता। सयाने कहते हैं कि 'अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।'
जब वह दौलत एकत्रित कर लेता है तब समाज में अपना एक विशेष स्थान भी चाहता है। उसके मन में यश पाने की आशा जागने लगती है। वह चाहता है कि उसकी कीर्ति दूर-दूर तक फैले, लोग उसे पहचानें। इस चक्कर में वह उस समय सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर भाग लेने लगता है। खूब दान देता है, अपने नाम के पत्थर भी लगवाता है।
जब वह प्रभूत धन अर्जित कर लेता है और चारों ओर उसका यश फैलने लगता है तब फिर उसके मन में एक शक्तिशाली इन्सान बनने की उत्कट लालसा बलवती होने लगती है। तब वह स्वयं को सिद्ध करने के लिए अनायास ही असामाजिक तत्वों से साँठ-गाँठ कर बैठता है। दूसरों पर रौब झाड़ने के लिए अपने साथ हथियारबंद गार्ड रखता है ताकि लोग उसका लौहा मानें और उससे डरकर रहें।
समय बीतते जब वह अपने ही बनाए हुए जाल में ही फंस जाता है। तब वहाँ से निकलने के लिए छटपटाने लगता है परन्तु उसके सारे प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं।
धन कमाने, यश पाने और शक्ति का प्रदर्शन करते हुए मनुष्य भटकता रहता है। तब अंत में वह शांति की तलाश में दर-बदर भटकने लगता है। वह तीर्थो, जंगलों की खाक छानता है। यदा कदा तथाकथित धर्मगुरुओं के चंगुल में फंस जाता है।
इन सब स्थानों पर भी उसे शान्ति नहीं मिल पाती, उसकी खोज अधूरी रह जाती है। इस तरह भटकते हुए उसका अन्तकाल आ जाता है और वह मिट्टी में मिल जाता है। फिर सब ठाठ-बाठ यहीं धरे रह जाते हैं।
मनुष्य अपने जीवन की इस यात्रा में बहुत-सी उम्मीदें पल लेता है। आशा ऐसी होनी चाहिए जो उसे उसके लक्ष्य तक ले जाए। अपने लक्ष्यों को पाने की होड़ में वह अपने रिश्तों से दूर होता जाता है। जब सबसे ऊबकर उसे उनकी आवश्यकता होती है तब तक वे पीछे छूट गए होते हैं। ये वही लोग होते हैं जो उसके अपने होते हैं किन्तु समय की ठोकर लगने से पराए हो गए होते हैं।
इन्सान का यह दुर्भाग्य है कि जरा-सा ऐश्वर्य, कीर्ति, शक्ति पाकर वह घमण्ड से फूल नहीं समाता और अपनी औकात भूल जाता है। दूसरी और इतनी विशाल जलराशि का स्वामी होकर भी सागर सदा अपनी सीमा में रहता है।
बड़े दुःख की बात है कि मनुष्य अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझता। हर किसी को देख लेने की धमकी देता हुआ स्वयं को ईश्वर से भी महान समझने लगता है। उसकी सत्ता को चुनौती देने लगता है, जिसका अन्त अच्छा नहीं होता।
मनुष्य को चाहिए की सब सुखों को देने वाले उस प्रभु को सदा स्मरण करते हुए उसका धन्यवाद करे। अपने अंतस में अहं को स्थान न देकर सबसे सहृदयता का व्यवहार करके वास्तविक पूँजी का संग्रह करे।
चन्द्र प्रभा सूद
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रविवार, 10 जुलाई 2016
मनुष्य की कामनाएँ
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