संस्कार से बढ़कर कोई भी और दौलत इस संसार में नहीं हो सकती। जिन लोगों में संस्कार एवं सदाचरण की कमी होती हैं वे लोग ही दूसरे को अपने घर पर बुलाकर अपमानित करने का यत्न करते हैं। हमारी भारतीय संस्कृति हमें यही शिक्षा देती है कि अतिथि को देवता मानते हुए उसका सदा सम्मान करो।
अगर किसी व्यक्ति को धोखा देने में मनुष्य सफल हो जाता है तो उसे अपनी जीत का जश्न नहीं मानना चाहिए। यदि उसके धोखे का उत्तर ऊपर वाले ने दिया तो वह सहन करना कठिन हो जाता है। मनीषी कहते हैं कि वह प्रभु परम न्यायकारी है। उसके यहाँ हर बुराई का भी फैसला अवश्य होता है। उसकी अदालत में देर तो हो सकती है पर अंधेर कभी नहीं होता।
मनुष्य को चाहने वाला उससे हर तरह की बात करता है। उसकी अच्छाइयों पर शाबाशी देता है और बुराइयों में उसको परामर्श देता है। वह हर मामले पर चर्चा करके विचारों का आदान-प्रदान करता रहता है। इसके विपरीत धोखा देने की प्रवृत्ति वाला मनुष्य तो सिर्फ चिकनी-चुपड़ी बात करके अपना हित साधता है। वह मन से उसका हितचिन्तक नहीं होता।
योग्य व्यक्ति न किसी से दबते हैं और न ही किसी को दबाते हैं। संसार का दस्तूर बहुत अलग तरह का हैं, जहाँ वह असफल लोगों का तिरस्कार करता हैं और सफल लोगों से ईर्ष्या करता है।
समाज की बहुत बड़ी विडंबना यह है कि कुछ लोग अपनी विवशताओं के कारण जीते-जी मर जाते हैं, सारा जीवन अभावों में जीते हैं। उनका इस धरती पर होना अथवा न होना कोई मायने नहीं रखता। इसके विपरीत कुछ लोग अपने सत्कार्यों की बदौलत मरने के पश्चात अमर हो जाते हैं। युगों-युगों तक इतिहास उन्हें स्मरण करता रहता है। समय-समय पर उनके उदाहरण दिए जाते रहते हैं।
इस संसार में बहुत काम ऐसे लोग हैं जो किसी से हमदर्दी रखते हैं या उनके बारे में अच्छा सोचते हैं। हर कोई अपने बारे में सोचना चाहता है इसीलिए वह दूसरों को तिरस्कृत कर देता है।
इस धरती पर लोग एक-दूसरे के साथ केवल अपनी आवश्यकताओं के लिए जुड़ते हैं और याद करते हैं। जिसने इस संसार की रचना की उस दाता को भी याद नहीं करना चाहते। जब जरुरत होती है तभी उसे याद करते हैं।
मनुष्य अपने अहं में इतना डूबा हुआ है कि वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है। अतः किसी को सम्मान नहीं देना चाहता। यदि मान देता भी है तो पहले अपनी जरूरत के विषय में सोचता है। किसी और की उसे कोई चिंता नहीं होती। जहाँ स्वार्थ टकराने लगते हैं तो वहाँ प्यार, अपनापन आदि नहीं हो सकते। जब काम निकल जाता है तो किसी को पहचानते ही नहीं हैं।
इन्सानी चरित्र में इतना परिवर्तन आता जा रहा है कि यदि कभी कारणवश मनुष्य को श्मशान में जाना पड़ जाता है तो वह वहाँ ऊबने लगता है। किसी को मृतक के साथ सहानुभूति रखना या उसके विषय में सोचने, चर्चा करने का समय ही नहीं होता। उन्हें तो बस वहाँ भी अपने कार्य ही याद आते हैं। अपने सगे लोग ही पूछ्ने लग पड़ते हैं कि बहुत देर हो गयी है अभी और कितना समय लगेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि धीरे-धीरे मनुष्य अपनी संवेदनाएँ खोता जा रहा है।
यह हद दर्जे की सोच है कि किसी को अपने दिल में स्थान मत दो और यदि किसी कारण से जगह देनी पड़ जाए तो उतनी ही देनी चाहिए जितनी वह देता हैं। हमारे मन संकुचित होते जा रहे हैं, उसे हम विशाल बनाना ही नहीं चाहते। यदि सभी लोग यही सोच रखने लगें तो संसार का क्या होगा?
ईश्वर का अंश होते हुए भी मनुष्य उन ईश्वरीय गुणों से दूर भागता रहता है। अपनी आँखों से तब तक स्वार्थ का चश्मा नहीं उतरेगा तब तक उसे सृष्टि के सौन्दर्य का बोध नहीं होगया। हृदय को विशाल बनाने पर सब शुभ होगा।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail. com
Twitter : http//tco/86whejp
शनिवार, 30 जुलाई 2016
संस्कारों की दौलत
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें