माना यही जाता है कि बुरे व्यक्ति अथवा दुष्ट के साथ सहृदयता बरतनी चाहिए। उसे यथासम्भव सुधारने का प्रयास करना चाहिए। उसे सन्मार्ग दिखाया जाए तो वह शायद अपने बुराई के रास्ते को छोड़ सकता है और निस्सन्देह एक अच्छा इन्सान बनने का प्रयत्न सकता है।
आज प्रायः लोग इस तर्क को न मानकर यही कहते हैं कि एक बार जो व्यक्ति गलत रास्ते पर चल पड़ता है उसकी वहाँ से वापिसी असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य होती है। इसका कारण है कि उसका मन वहाँ रमता है और वह समझता है कि उसका लौहा सभी मानते हैं। उसकी तूती बोलती है तथा लोग उससे डरते हैं। इसलिए वह वापिस नहीं लौट सकता। यदि वह लौटना चाहे भी तो उसके साथी उसे वैसा नहीं करने देते। उन पर अपना कीमती समय नष्ट न करके उसका सदुपयोग करना चाहिए।
अपराधिक प्रवृत्ति वाले मनुष्यों को कितना भी सुधारगृह में भेज दो, उन्हें एक जिम्मेदार नागरिक बनाने का कितना भी यत्न क्यों न किया जाए पर परिणाम वही होगा यानि 'ढाक के तीन पात।' तब उन पर की गई मेहनत की जाए व्यर्थ हो जाती है।
किसी विद्वान का कहना है कि दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करना चाहिए-
'शठे शाठ्यं समाचरेत्।'
या दूसरे शब्दों में कहा जाए कि-
'ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहिए।'
अर्थात यदि कोई ईंट मारे तो उस पर पत्थर से वार तो कर ही देना चाहिए।
उनका कथन है कि उन्हें कोई और भाषा समझ ही नहीं आती। वे इसके लिए तर्क देते हैं कि दुष्ट व्यक्ति साँप की तरह होता है। उसे कितना भी दूध पिलाओ वह डंक जरूर मारता है। इसी तरह दुष्ट के साथ कितना भी अच्छा करो, मौका आने पर वह अपनी हरकतों से बाज हीं आता। वह हानि करा ही देता है। इसलिए वह कभी विश्वास के योग्य नहीं बन सकता, उसका त्याग करना ही श्रेयस्कर होता है।
यदि दुष्ट के साथ नरमी का बर्ताव किया जाए तो उसका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ जाता है। वह दूसरों को मूर्ख समझता है। इसलिए उसके साथ नरमी नहीं बरतनी चाहिए। उनका कथन है कि-
'आर्जवं हि कुटिलेषु न नीति:।'
अर्थात् दुष्ट के साथ सरलता नहीं बरतनी चाहिए।
उसे ऐसा व्यवहार रास नहीं आता। मनुष्य को ऐसी नीति अपनानी चाहिए जिससे उसे यह न लगे कि सामने वाला कमजोर हैं या उसका प्रतिकार नहीं कर सकता। अतः उसको दबाया न सकता है अथवा डरा-धमकाकर उससे अपना उल्लू सीधा किया जा सकता है।
वैसे तो हम सब चाहते हैं कि उन दुष्ट लोगों को सुधारने का एक मौका दिया जाना चाहिए। पर वास्तव में एक अवसर मिलने पर उनमें सुधार हो सकता है क्या? यदि हाँ तो यह समाज के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी अन्यथा समय की बरबादी ही मानी जाएगी।
दुष्ट को यदि हम क्षमा करेंगे तो वह हमारा मजाक उड़ायेगा और कहेगा कि हम में हिम्मत ही नहीं है उसका सामना करने की। हमारी क्षमाशीलता को वह हमारी कमजोरी समझकर और अधिक अत्याचार करेगा। इसिलए उसका प्रतिकार करना आवश्यक हो जाता है।
अपवाद हर विषय में मिल जाते हैं। सन्यासियों की संगति में आकर रत्नाकर डाकू लोकप्रसिद्ध रामायण के रचियता बन गया। इसी प्रकार महात्मा बुद्ध के सम्पर्क में आने पर अंगुलिमाल डाकू उनका प्रिय शिष्य बन गया। ऐसे उदाहरणों से इतिहास भरा हुआ है जहाँ सज्जनों की संगति में दुष्ट अपनी बुराइयों को दूर करके महापुरुष बन गए। बस केवल खोजने भर की देर है। वाल्मीकि व अंगुलीमाल डाकू दोनों ही महात्माओं की संगति में महान बने तथा उन्होंने समाज को दिशा देने का कार्य किया। पर ऐसे कुछ ही लोग हैं जो अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं।
यहाँ मैंने विद्वानों की उक्तियों को आपके समक्ष रखा है। अब आप अपनी तर्क बुद्धि और विवेक से विचार करें कि हम इन दुष्ट लोगों के साथ कैसा व्यवहार करें?
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 8 जुलाई 2016
दुष्ट के साथ कैसा व्यवहार
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