मनीषियों का कथन है कि हम जो कुछ भी दूसरो को देते हैं, वही सब लौटकर हमारे पास ही वापिस आ जाता है। वह चाहे मान-सन्मान हो अथवा धोखा। दूसरे शब्दों में यदि हम बबूल का पेड़ बोएँगे तो उससे कभी आम का स्वादिष्ट फल नहीं प्राप्त कर सकते। बबूल के वृक्ष से तो आम के फल की कल्पना करना मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता।
विद्वान यही समझाते हैं कि जैसी करनी वैसी भरनी। यानि जैसे कार्य अथवा व्यवहार मनुष्य अन्यों के साथ करता है, वैसा ही व्यवहार उसे दूसरों से मिलता है। यह तो असम्भव है कि वह दूसरे लोगों से दुर्व्यवहार करे परन्तु सभी उससे सद् व्यवहार करें और प्यार करें।
इसी कथ्य को हम एक बोधकथा के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं, जिसे आप लोगों ने भी कभी-न-कभी पढ़ा होगा।
किसी गाँव का एक किसान दूध से दही और मक्खन बनाकर बेचता था। एक दिन उसकी पत्नी ने मक्खन तैयार किया और वह उसे बेचने के लिए शहर की ओर चला गया। मक्खन को उसने गोल पेड़ों की शक्ल में बनाया था। हर पेड़े का वज़न एक किलो था। किसान ने हमेशा की तरह एक दुकानदार को वह मक्खन बेच दिया। फिर उस दुकानदार से घर के लिए राशन का सामान खरीदकर वापस अपने गाँव आ गया।
किसान के जाने के बाद दुकानदार तब मक्खन को फ्रिजर मे रखने लगा तो उसने सोचा कि एक पेड़े का वजन कर लेता हूँ। वजन करने पर पेड़ा सिर्फ नौ सौ ग्राम का निकला। उसे बड़ी हैरानी और निराशा हुई। उसने सारे पेड़े तोले और किसान के लाए हुए सभी पेड़े नौ-नौ सौ ग्राम के ही निकले।
अगले हफ्ते जब किसान फिर हमेशा की तरह मक्खन लेकर दुकानदार की दहलीज पर चढ़ा तो दुकानदार ने किसान से चिल्लाते हुए उससे कहा - "दफा हो जा, किसी बेईमान और धोखेबाज इन्सान से मुझे व्यापर नहीँ करना। नौ सौ ग्राम के मक्खन को पूरा एक किलो का बताकर बेचने वाले इन्सान की शक्ल देखना भी मैं गंवारा नहीँ करता।"
किसान ने बड़ी ही विनम्रता से उस दुकानदार को कहा - "भाई, मुझसे नाराज न हो। हम गरीबी लोग हैं, माल तोलने के लिए हमारे पास बाट खरीदने की हैसियत नहीं है। आपसे जो एक किलो चीनी लेकर जाता हूँ उसी को तराजू के एक पलड़े पर रखकर दूसरे पलड़े पर उतने ही वजन का मक्खन तोलकर ले आता हूँ।"
यह कथा हमें यही शिक्षा देती है कि स्वयं को बहुत स्मार्ट या समझदार मैंने वाले भी धोखा खा जाते हैं। हाँ कह सकते हैं कि सेर को कभी-न-कभी सवा सेर टकरा ही जाता है, जैसे इस कथा में दुकानदार के साथ घटा।
एक उक्ति है कि समझदार कौआ भी गंदगी के ढेर पर ही बैठता है। यह उक्ति हो सकता है कि इस प्रसंग में अधिक उपयुक्त प्रतीत न हो पर मेरे कहने का तात्पर्य मात्र इतना है कि मनुष्य अपने आप को कितना भी सयाना क्यों न समझ ले परन्तु उसकी वास्तविकता नहीं छिप सकती।
गलत काम करने वाला मनुष्य अपनी हरकतों से बाज नहीं आता और शुभकार्य करने वाले अपनी अच्छाई के लिए हमेशा पहचाने जाते हैं। जो व्यक्ति व्यापर में या व्यवहार में दूसरों के साथ धोखा करता है, वह दूसरे सब लोगों को भी भ्रष्ट मानता है। वह किसी पर विश्वास नहीं करता।
इसके विपरीत जो व्यक्ति व्यापर में या व्यवहार में ईमानदारी बरतता है उसे प्रायः अच्छे और सच्चे लोग मिलते हैं। यदि दो-चार बेईमान लोग मिल भी जाते हैं तो स्वयं ही किनारा कर लेते हैं क्योंकि उन्हें शीघ्र समझ आ जाती है कि वहाँ पर उनकी दाल नहीं गलेगी।
यह प्रकृति का नियम है कि मनुष्य जैसे विचार रखता है और जैसा व्यवहार दूसरे लोगों के साथ करता है वह धरती पर बादलों के जल की तरह लौटकर उसी के पास वापिस आ जाता है। कोई इस सत्य को स्वीकार करे अथवा न करे।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 15 जुलाई 2016
जो दूसरों को दोगे वही पाओगे
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