मंगलवार, 26 जुलाई 2016

निन्यानवे का फेर

निन्यानवे का फेर बहुत परेशान करता है। इसके फेर से न तो कोई आज तक बच पाया है और भविष्य में भी शायद ही कोई इससे बच सकेगा।
        आखिर यह निन्यानवे का फेर है क्या? क्यों यह सबके दुःख का कारण बनता है? इससे बच पाना मनुष्य के लिए असम्भव क्यों है?
        ये कुछ प्रश्न हैं जिनकी हम विवेचना करेंगे। कहते हैं कि बहुत समय पहले एक गरीब दम्पत्ति बहुत कष्ट में अपना समय व्यतीत कर रहे थे। पर बड़े सुकून से रहते थे। उनकी यह दुरावस्था किसी सहृदय सज्जन से देखी नहीं गई। उन्होंने उनकी सहायता करने का विचार किया। यदि वे सामने से जाकर सहायता करते तो स्वाभिमानी दम्पत्ति आहत हो जाता।
        इसलिए उन्होंने ने एक निर्णय लिया और फिर उसके घर में चुपके से एक थैली में कुछ रुपए रख दिए। अब वे देखना चाहते थे कि वे दोनों उस धन को पाकर क्या प्रसन्न हो जाएँगे? उन्होंने उन दोनों पर नजर रखनी शुरू की।
         उन दोनों ने जब अपने घर में अचानक रुपयों से भरी थैली देखी उनकी ख़ुशी का पारावार न रहा  तो अपने सौभाग्य को सराहा। जब उन्होंने ने पैसे गिने तो वे निन्यानवे सिक्के निकले। अब उनके मन में यह इच्छा हुई कि किसी तरह इस राशि को सौ तक पहुँचा दें। अब उनका सारा सुख-चैन खो गया। दिन-रात बस एक ही धुन कि किसी तरह उनकी धनराशि सौ रुपए हो जाए।
        वे खूब मेहनत करके कमाते रहते और जब उन्हें लगता कि अब उनके पास सौ रुपए हो जाएँगे तो ऐसे खर्च आ जाते की वह राशि सौ के आंकडे तक ही नहीं पहुँच सकी। इसीलिए यह निन्यानवे के फेर वाली उक्ति बनी।
         यह केवल उस गरीब दम्पत्ति की व्यथा-कथा नहीं है बल्कि हम सब भी इसी कमाने धुन में दिन-रात कठोर परिश्रम करते हुए कोल्हू का बैल बन जाते हैं। अपना सुख-चैन गंवा देते हैं पर मनचाहा धन नहीं कमा पाते।

        इन्सान इस धन को कमाने की होड़ में अपना-आपा तक भूल जाता है। उसका मस्तिष्क बस पैसे को कमाने की जुगाड़ में लगा रहता है। उसका हृदय सच-झूठ, भ्रष्टाचार, कालाबजारी, किसी का गला काटने से भी परहेज न करता हुआ संवेदना शून्य तक हो जाता है। जिनके लिए वह सारे पाप-पुण्य करता है उन्हीं से दूर होकर एक समय के पश्चात अकेला रह जाता है।
         यह पैसा है कि इसकी हवस दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है। जितना मनुष्य इसके पीछे भागता है उतना ही वह उसे और नाच नाचता है। इन्सान सोचता है कि उसने इतना कमा लिया की उसकी सात पुश्तें आराम से बैठकर खा सकती हैं। पर वह भूल जाता है कि जो भी वस्तु मनुष्य की बिना मेहनत किए मिल जाती है उसकी वह कद्र नहीं करता।
        यही बात धन-संपत्ति के साथ भी होती है। अनायास मिले अकूत धन-वैभव को उसके उत्तराधिकारी सम्हाल नहीं पाते और उसे दुर्व्यसनों में बर्बाद कर देते हैं। फिर जायज-नाजायज तरीके से कमाया हुआ सारा धन तो व्यर्थ होता ही है और जिनको सताया उनकी बद्दुआएँ भी पीछा नहीं छोड़तीं।
         इसीलिए सयाने कहते हैं-
            पूत सपूत तो का धन संचै
            पूत कपूत तो का धन संचै।
अर्थात यदि पुत्र सुपुत्र है तो वह स्वयं ही काम लेगा, उसके लिए धन का संचय न करो। यदि पुत्र कुपुत्र है तो वह सारा धन उजाड़ देगा, उसके लिए धन संचय करना व्यर्थ है।
         इसके अतिरिक्त सुनामी, भूकम्प, बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं के समय यह अनैतिक कमाई नहीं दूसरों द्वारा दिए गए आशीर्वाद ही काम आते हैं। इस सत्य को कभी भी अपने मन से नहीं निकालना चाहिए।
          तात्पर्य यही है कि बच्चों को संस्कारी बनाएँ। धन तो वे काम ही लेंगे। स्वयं भी ईमानदारी और सच्चाई से धन कमाइए उसमें बहुत बरकत होती है। ईश्वर भी ऐसे सज्जनों से प्रसन्न रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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