शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

मांसाहार

सदा से ही समाज में यह विषय चर्चा का रहा है कि हमारा भोजन शाकाहारी होना चाहिए अथवा मांसाहारी। कुछ लोग ऐसे हैं जो मांसाहार को पौष्टिक भोजन मानते हुए मनुष्य के जीवन के लिए आवश्यक मानते हैं। इसके विपरीत कुछ अन्य ऐसे लोग हैं जो शाकाहार को सात्विक भोजन कहते हुए मनुष्य के लिए उसकी उपयोगिता पर बल देते हैं।
          दोनों पक्षों के लोग अपने-अपने मत को पुष्ट करने के लिए तरह-तरह की दलीलें प्रस्तुत करते हैं। कुछ दलीलें हमारी बुद्धि को मान्य होती हैं और कुछ हमारे हमें नहीं भातीं। शाकाहार निर्विरोध रूप से सभी को स्वीकार्य है। अब तो वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं कि शाकाहार ही मनुष्य के लिए उपयुक्त भोजन है। इसलिए बहुत से लोग स्वेच्छा से शाकाहार की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं।
            मांस भक्षण यानि मांसाहार के विषय में हमारे मनीषी अथवा हमारे ग्रन्थ हमें क्या समझाते हैं? इसकी हम आज विवेचना करते हैं।
         मनुस्मृति में भगवान मनु कहते हों-
मांसभक्षयिताSमत्र यस्य मांसमिहाद्भ्यहम्
एतन्मासस्य मांसत्व प्रवदन्ति मनीषिण:॥
अर्थात् मैं जिसके मांस को यहाँ (इस संसार में) खाता हूँ, वह भी परलोक में मुझे खाएगा। विद्वान मांस शब्द का यही मांसत्व बताते हैं।
          मनुस्मृति में और भी कहा है-
यावन्ति पशुरोमाणि तावन्कृतवोह मारणम्
वृथा पशुघ्न: प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि
अर्थात् जो मनुष्य निरपराध पशु का वध करता है, पशु की देह पर जितने रोम हैं, वह उतनी ही बार जन्म-जन्म में प्रतिघात प्राप्त करणा है अर्थात दूसरों के हाथों से मारा जाता है।
           मनुस्मृति के इन दोनों श्लोकों में भगवान मनु कहना चाहते हैं कि किसी भी पशु का वध करने वालों को बार-बार जन्म लेकर उसी प्रकार हिंसा का शिकार होना पड़ता है। जब तक उनका प्रायश्चित न हो जाए उन्हें छुटकारा नहीं मिल पाता।
          श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है-
भूतेषु बद्धवैरस्य न मन: शान्तिमृच्छति।
अर्थात् जीवों पर वैर का भाव मनुष्य के मन को कभी शान्ति नहीं देता।
         भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में  अन्यत्र कहा है-
निर्वैर: सर्वभूतेषु य:स सामेति पाण्डव!
अर्थात् हे अर्जुन! जो सभी जीवों पर वैर रहित है, वही मुझे प्राप्त कर सकता है।
           दोनों ही श्लोकाँशों में भगवान कृष्ण का कथन है कि किसी भी जीव से वैर भाव नहीं रखना चाहिए। किसी जीव का अहित करने पर मन में एक कसक सी रहती है। मनुष्य में बेचैनी रहती है। वे कहते हैं कि मुझे वही प्राप्त कर सकता है जो  मन, वचन व कर्म से भी किसी का अहित न करे।
             श्रीमद्भागवत् में बहुत ही सुन्दर शब्दों में आदेश दिया है किया है-
मृगोष्ट्र खरमर्काखु सरीसृप्खगमक्षिका:।
आत्मन: पुत्रवत् पश्येत् तैरेषामनन्तरं कियत्॥
अर्थात् हिरण, ऊँट, गधा, बन्दर, चूहा, सरीसृप, सर्प, पक्षी और मक्खी आदि को अपने पुत्र के समान ही समझना चाहिए वास्तव में उनमें और पुत्रों में अन्तर ही कितना है?
            श्रीमद्भागवद् ने व्याख्यायित किया है कि छोटे-से-छोटे जीव को भी अपने पुत्र के समान मानकर उनकी रक्षा करे। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि जैसे मनुष्य अपने पुत्र का वध नहीं कर सकता उसी तरह अन्य जीवों को भी नष्ट नहीं करना चाहिए।
          शतपथ ब्राह्मण का कथन है-
यदु वा आत्मसंमितं तदवति तन्न हिंसति।
यद् भूयो हिनस्ति तत् यत्कनीयो न तदवति॥
अर्थात् जो आत्मानुकूल है वह रक्षा करता है हिंसा नहीं। और जो हिंसा करता है वह तुच्छ होता है।
           हिंसा चाहे जीभ के स्वाद के लिए हो, जनून के लिए अथवा शौक के लिए, कभी भी प्रशंसनीय नहीं होती। शेष सुधी जन स्वयं विचार करने में समर्थ हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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