मनुष्य इस आशा में सारा जीवन व्यतीत देता है कि कभी तो उसके दिन बदलेंगे और वह भी सुख की साँस ले सकेगा। वह उस दिन की प्रतीक्षा करता है जब उसका भी अपना आसमान होगा जहाँ वह लम्बी उड़ान भरेगा। उसकी अपनी जमीन होगी जहाँ वह पैर जमाकर खड़ा हो पाएगा। तब कोई उसकी ओर चुभती नजरों से देखने की हिमाकत नहीं करेगा।
कहते हैं बारह वर्ष बाद तो घूरे के भी दिन बदलते हैं। इन्सान के अपने भाग्य में भी परिवर्तन होगा, ऐसे सपने तो वह देख सकता है। कुछ सौभाग्यशाली लोग होते हैं जिनके जीवन में समय बीतते बदलाव आ जाता है। परन्तु कुछ दुर्भाग्यपूर्ण लोग भी संसार में हैं जो जन्म से मृत्यु तक एड़ियाँ घिसते रहते हैं। उनके लिए सावन हरे न भादों सूखे वाली स्थिति रहती है।
उम्मीद वर्षो से घर की दहलीज पर खड़ी वो मुस्कान है जो हमारे कानों में धीरे से कहती है- 'सब अच्छा होगा।' और इसी सब अच्छा होने की आशा में हम अपना सारा जीवन दाँव पर लगा देते हैं। अपने जीवन को अधिक और अधिक खुशहाल बनाने के लिए अनथक श्रम करते हुए भी मुस्कुराते रहते हैं। अपने उद्देश्य को पाने में जुटा मनुष्य हसी-खुशी कोल्हू का बैल बन जाता है।
घर-परिवार के दायित्वों को यदि मनुष्य सफलतापूर्वक निभा सके तो उससे अधिक सौभाग्यशाली कोई और हो नहीं सकता। किन्तु जब उनको पूरा करने की कवायद करता हुआ वह, बस जोड़तोड़ तक सीमित रह जाता है तब यह मानसिक सन्ताप उसे पलभर भी जीने नहीं देता। धीरे-धीरे उसकी हिम्मत जवाब देने लगती है। तब उसके कुमार्गगामी बन जाने की सम्भावना बढ़ जाती है।
उस समय मनुष्य भूल जाता है कि समय से पहले और भाग्य से अधिक कभी भी किसी को कुछ नहीं मिलता। यदि इस सूत्र का स्मरण कर लिया जाए तो वह सदा सन्मार्ग का पथिक ही रहे। तब मनुष्य अपने जीवन को इस तरह नरक की भट्टी में झोंककर और अधिक कष्टों को न्यौता नहीं देगा। यदि वह अपने विवेक का सहारा ले सके तो सब बन्धु-बान्धवों का जीवन बरबाद होने से बचा सकता है।
मनुष्य को सदा आशा का दामन थामकर रखना चाहिए। इस बात को उसे स्मरण रखना चाहिए कि जब काले घने बादल आकाश पर छा जाते हैं तब वे शक्तिशाली सूर्य को भी आक्रान्त कर लेते हैं। दिन में ही रात होने का अहसास होने लगता है यानि घटाटोप अंधकार छा जाता है। उस समय बादलों के बरस जाने के बाद सूर्य मुस्कुराता हुआ फिर से आकाश में चमकने लगता है। सब कुछ साफ-साफ दिखाई देने लगता है।
मनुष्य के जीवन में भी कठिनाइयों के पल यदा कदा आते रहते हैं। उसे निराश हताश करते हैं। सब बन्धु-बान्धवों से उसे अलग-थलग कर देते हैं। उसका अपना साया ही मानो पराया हो जाता है। अपने चारों ओर उसे निराशा के बादल घिरते हुए दिखाई देते हैँ। ऐसी कठिन परिस्थितियों में भी सुख की चाह में मनुष्य को आशा का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। अपने समय पर स्थितियाँ फिर से अनुकूल हो जाती हैं और मनुष्य की झोली में पड़े हुए काँटे फूलों में बदल जाते हैं।
उस समय मुरझाया हुआ मनुष्य पुनः फूलों की तरह महकने लगता है। तब मनुष्य को कर्तापन के वृथा अहंकार को अपने पास फटकने भी नहीं देना चाहिए। जीवन की हर परीक्षा में तपकर कुन्दन की तरह और निखरकर सामने आना चाहिए। हर परिस्थिति में उसे उस मालिक का अनुगृहीत होना चाहिए। तभी मनुष्य को मानसिक और आत्मिक बल तथा शान्ति मिलती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 25 अप्रैल 2016
दिन बदलने की आशा
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