मानव के इस शरीर का स्वभाव मरणशील है। यह संसार ही मरणधर्मा कहलाता है। जो भी जड़-चेतन जीव यहाँ जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। इसीलिए इस संसार को असार भी कहते हैं।
हितोपदेश में कवि ने कहा है कि-
काय: सन्निहितापाय: सम्पद: पदमापदाम्।
समागमा: सापगमा: सर्वमुत्पदि भङ्गुरम्॥
अर्थात् शरीर का स्वभाव विनाश है। सम्पत्तियों और आपत्तियों का स्थान हैं। संयोग-वियोग वाले हैं और सम्पूर्ण उत्पन्न पदार्थ क्षणभंगुर हैं।
इस श्लोक में कवि का कथन है कि शरीर का स्वभाव विनाश है। मनुष्य परिश्रम करके सम्पत्तियाँ जुटाता है। फिर उन एकत्रित किए गए ऐश्वर्यो का भोग करता है। उसके जीवन में क्रमानुसार विपत्तियाँ आती हैं जो उसे दुखों के भंवर में छोड़ देती हैं। उनसे त्रस्त मनुष्य को कहीं ठौर नही मिलता। उस कष्टकारी समय को बिताने में उसे नानी याद आ जाती है। उस समय उसके अपने भी उससे किनारा कर लेते हैं। तब वह इस संसार सागर में निपट अकेला रह जाता है
अपने बन्धु-बान्धवों से उसका संयोग होता है और कुछ समय पश्चात उनसे वियोग हो जाता है। उसका कोई-न-कोई प्रियजन इस असार संसार में पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार अपनी आयु भोगकर सदा के लिए यहाँ से विदा ले लेता है। इस प्रकार इस ब्रह्माण्ड में उत्पन्न सभी जीव क्षणभंगुर कहलाते हैं।
इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए आचार्य चाणक्य के इस कथन पर विचार करते हैं -
नासातो निर्गमस्यापि श्वासस्य च महामुने।
प्रवेशे प्रत्ययो नास्ति प्रातरागमनं कुत:॥
अर्थात् हे महामुने! नाक से निकला श्वास पुन: प्रवेश कर पाएगा या नहीं, इसका भी भरोसा नहीं है। तब प्रात:काल के आने की बात ही क्या?
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि हम जो श्वास दिन के चौबीसों घण्टे लेते हैं, उसका कुछ भी भरोसा नहीं है। अभी जो श्वास लिया है उसके बाद का श्वास हमें लेने के लिए मिलेगा अथवा नहीं, हमें कुछ भी पता नहीं। यह सब भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है। इस विषय में उस ईश्वर के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता।
यह संसार जीव की कर्मभूमि है। यहाँ मनुष्य के रूप में जन्म लेकर वह अपने कर्मों को बीजरूप में बोता है और जन्म-जन्मान्तर तक उसके कड़वे-मीठे फल खाता रहता है। चौरासी लाख कही जाने वाली योनियों में केवल मनुष्य योनि ही कर्मयोनि कहलाती है, शेष अन्य योनियाँ भोगयोनि कहलाती हैं। वहाँ जीव मात्र अपने कर्मों का फल भोगता है, कर्म कर नहीं सकता।
मनीषियों का मानना है कि जीव संसार में रहते हुए यदि घर-परिवार, देश, धर्म और समाज के बनाए नियमों के अनुसार कर्म करता है तो वे श्रेष्ठ कर्म करता है। इसके विपरीत किए गए कर्म निम्न कहलाते हैं। शुभकर्मों का फल उसे इस जन्म में और आगामी जन्म में सुख, समृद्धि और ऐश्वर्य देते हैं। उसके दुष्कर्म उसे इहलोक और परलोक में महान् कष्ट और परेशानियाँ देते हैँ।
मनुष्य चाहे तो अपना लोक और परलोक दोनों सुधार कर उस मालिक का प्रिय बन सकता है अन्यथा वह जन्म-जन्मान्तरों तक अपने कर्मो का भुगतान कष्टों के रूप में करता रहेगा। यह संसार उसकी बपौती नहीं है यहाँ से उसकी विदाई पक्की है।
इस क्षणभंगुर नश्वर शरीर से जो सत्कर्मों की वृद्धि करनी है कर लीजिए फिर यह समय हाथ नहीं आएगा। अन्तकाल में पश्चाताप भी कुछ सुधार नहीं कर सकेगा। अत: अपने साथ मित्रता निभाइए।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 19 अप्रैल 2016
मनुष्य मरणधर्मा
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