अपनी ही जाति के लोग जब किसी को बरबाद करने लगें तब विनाश होना निश्चित है। इस कथन का अर्थ है कि इन्सान इन्सान का शत्रु बन जाए या शेर ही शेर का दुश्मन जाए (यानि एक ही प्रकार या जाति का पशु) अथवा एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाएँ तब उनका बच पाना वाकई कठिन हो जाता है।
दूसरा कोई यदि अहित करने की सोचेगा तो अपनी सामर्थ्य और शक्ति के अनुसार उसका प्रतिकार किया जा सकता है। परन्तु जब अपने ही पीठ में खंजर घोंप दें यानि धोखा देने लग जाएँ तब बचना नामुमकिन हो जाता है। इसका कारण है कि वे हमारी अच्छाइयों और कमजोरियों को भली-भाँति जानते हैं।
'कामन्दकीयनीतिसार' ग्रन्थ में इसी तथ्य को कवि ने उदाहरण सहित हमें समझाया है-
विषं विषेण व्यथते वज्रं वज्रेण भिद्यते।
गजेन्द्रो दृष्टसारेण गजेन्द्रेणैव च॥
मत्स्यो मत्स्यमुपादत्ते ज्ञातिर्ज्ञातिमसशयम्।
रावणोच्छिद्यत्तये रामो विभूषणमपूजयत्॥
अर्थात् विष से विष का नाश होता है, वज्र से वज्र का भेदन होता है, गजेन्द्र गजेन्द्र के द्वारा बन्धन में आता है, मछली को मछली ही निगलती है। निस्सन्देह जाति का विनाश जाति के द्वारा ही होता है। राम ने रावण के विनाश के लिए विभीषण का ही सत्कार किया।
अर्थात् यह श्लोक हमें चेताने का यत्न कर रहा है कि जहर को जहर काटता है। वज्र को वज्र काटता है, इसे ऐसे भी कह सकते है कि लोहे को लोहा काटता है। हाथी को पकड़ने के लिए महावत हाथी का इस्तेमाल करता है। बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है। ये सभी जातियाँ अपनी दुश्मनी खुद ही निभाती हैं।
आगे और भी सटीक उदाहरण देते हुए कवि नेकहा है कि अपने शत्रु रावण का वध करने के लिए भगवान राम को भी विभीषण की सहायता लेनी पड़ी। तभी बड़े-बजुर्ग कहते हैं घर का भेदी लंका ढाए। इतिहास के पन्ने भरे हुए हैं ऐसे उदाहरणों से जहाँ इन जैसे विभीषणों और जयचन्दों ने बड़े-बड़े साम्राज्यों का विनाश करवा दिया। तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपने ही देश को शत्रुओं के सुपुर्द करने में उनकी सहायता की। उनके समक्ष सारे रहस्यों का उद्घाटन किया। अनेक मासूम लोगों को मौत की नींद सुलाते हुए न तो उन्हें किसी से डर लगा और न ही उनके मन ने उन्हें कचोटा।
सृष्टि की रचना करते समय उसमें सभी जीवों में तालमेल बना रहे, इसका ध्यान रखा गया। जीव-जन्तुओं की अधिकता न हो जाए, इसलिए शायद यह विधान बनाया कि अपनी जाति ही उसके विनाश का कारण बने।
पशुओं की आबादी बहुत अधिक न हो जाए इसलिए शेर, लौमड़ी, सियार आदि मांसाहारी हिंसक पशु बनाए। इसी प्रकार समुद्र में जन्तुओं का सामञ्जस्य बना रहे इसलिए बड़ी हिंसक मछलियाँ बना दीं। इसी प्रकार सभी जीवो की बुद्धियों को बना दिया कि वे अपनी जाति के विनाश का कारण बन जाएँ।
मनुष्य जो ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है उसकी बुद्धि को भी ऐसा बना दिया कि वह अवसर आते ही दूध की तरह फट जाती है और सभी अनर्थों का मूल (जड़) बन जाती है। अपनी मूर्खताओं के कारण शत्रु राज्यों को अपने गुप्त रहस्यों को देकर अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारता है। देशद्रोही बनकर सबकी नफरत और नाराजगी मोल लेता है।
प्रकृति का अत्यधिक दोहन करके और उसे दूषित करके अपने रास्ते में खड्डे खोदता है। समय बीतते भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं को न्यौता देकर अनेक मनुष्यों के विनाश और उनके दरबदर होने का कारण बनता है।
अपनी जाति को विनाश से बचाने के लिए मनुष्यों को सकारात्मक कार्य करने चाहिए। पशु-पक्षियों की तो बुद्धि ऐसा नहीं सोच सकती। परन्तु मनुष्य को तो ईश्वर ने बुद्धि का वरदान दिया है, उसे तो सावधान होना चाहिए। अपनों से शत्रुता न करके उनके लिए संवेदनशील होना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 6 अप्रैल 2016
अपनी जाति से कष्ट मिले
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