अशरीरी मन का महत्व
हमारे शरीर में जो मन विद्यमान है, वह अशरीरी है। मन को अशरीरी इसलिए कहते हैं क्योंकि इसका कोई आकार नहीं होता, कोई रूप नहीं होता है। अतः कोई इसे देख नहीं सकता है। फिर भी हम इसके महत्त्व को नकार नहीं सकते। हिरण की नाभि में छुपी कस्तूरी के समान यह सबके शरीर में रहता है। अशरीरी होते हुए भी यह हमारे जीवन में विशेष रोल अदा करता है। यह हमारे मानव जीवन को अपनी इच्छानुसार चलाता है। इसके अपने कुछ नियम भी हैं, जिनको समझना हमारे लिए बहुत आवश्यक हो जाता है।
हमारा मन हर उस वस्तु को पाना चाहता है, जो हमारे पास नहीं होती है। जब तक उसे प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक वह उसके लिए व्याकुल रहता है। उसकी व्यग्रता से प्रतीक्षा करता है। उसके यथासम्भव मेहनत करता है। परन्तु जब उस वस्तु को प्राप्त कर लेता है, तब उसके प्रति विरक्त होने लगता है यानी उसे मन भूलने लगता है। तब वह वस्तु उसे मामूली-सी लगने लगती है। जो वस्तु उसे सरलता से, बिना परेशानी के प्राप्त जाती है, वह उसकी कद्र नहीं करता।
यहॉं हम एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं। एक छोटा बच्चा नया खिलौना लेने के लिए जिद करता है, रोता है, चीखता-चिल्लाता है, परन्तु जब उसके माता-पिता उसे वह ले देते हैं, तब वह खुश होता है। उससे कुछ दिन खेलता है, फिर उसे भूल जाता है कि वैसा कोई खिलौना कभी उसके पास था। फिर भी यदि कोई दूसरा बच्चा उस खिलौने से खेलने लगे, तो उससे झपटकर छीन लेता है। उस समय उस खिलौने के लिए उसमें अपनेपन का भाव आ जाता है, जो कुछ समय पूर्व तक कहीं दिखाई नहीं देता था।
बच्चे का उदाहरण देने का तात्पर्य यह है कि मानव मन सदा ही बच्चा बना रहना चाहता है। वह बच्चे की भाँति सरल, दयालु, छल-कपट से रहित रह सकता है, पर सदा के लिए नहीं। इसे समय आने पर गिरगिट की तरह रंग बदलने में भी महारत हासिल है। यह सरलता से अपने सभी रंग दिखा देता है। इसलिए इससे बचकर चलने की बहुत ही आवश्यकता होती है। यद्यपि यह बहुत कठिन कार्य है, परन्तु यदि ध्यान दिया जाए, तो ऐसे लोगों को पहचानना कठिन नहीं है।
यही स्थिति मनुष्य के मन की भी होती है। मनचाही वस्तु को पाकर वह उसे बेशक भूल जाता है, पर दूसरों के सामने उसका प्रदर्शन करने से नहीं चूकता। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि जब हमारा अपना हमसे दूर होता है, उसके लिए वह बेचैन होता है, रोता है। जो हमारे पास होता है, उसकी वह उपेक्षा करता है। यह मन सदा भविष्य के बारे में सोचता है, वर्तमान की वह चिन्ता नहीं करता। भूतकाल उसे बहुत प्रिय होता है, तभी उन गलियों में भ्रमण करता रहता है।
जहाँ मनुष्य पहुँच जाता है, मन वहाँ से हटकर कहीं दूर चला जाता है। यह मन आगे-आगे दौड़ता है और हम उसके पीछे भागते रहते हैं। वह कभी कहीं जाता है और कभी कहीं। जहाँ हम जाना चाहते हैं, वह धत्ता दिखाकर अन्यत्र चला जाता है। हम उसे पकड़ने का यत्न करते हैं, तो वह मुँह चिढ़ाकर भागने लगता है। हम घर में होते हैं, तो वह देश-विदेश की सैर करने चला जाता है। जब हम बाहर होते हैं, तब इसे घर की याद सताने लग जाती है। फिर यह बिसूरने लगता है।
मन मानो धरती को छूता हुआ क्षितिज है। वह कहीं है नहीं, बस अपने होने का अहसास करवाता रहता है। यदि हम आगे बढ़ते हैं, तो वह हमसे भी कहीं आगे बढ़ जाता है। मन का यह खेल बड़ा विचित्र है। इसे समझना वास्तव में असम्भव है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि यह मन हमारे पास रहकर भी हमारी पहुॅंच से बहुत दूर है। मानो वह कोई दूर की कौड़ी है। कभी-कभी तो ऐसा लगने लगता है कि जैसे इस मन से हमारा तो कुछ भी लेना-देना नहीं है। कभी-कभी यह बड़ा पराया-सा लगने लगता है।
मन सदा ऊँचे-ऊँचे स्वप्न देखता रहता है। इसका सारा खेल अभाव के साथ सम्बन्ध बनाने का होता है। यदि मनुष्य के पास एक लाख रुपए हों तो मन उन्हें अनदेखा करके दस लाख रुपयों की जमा-घटा करने लगाता रहता है, जो हमारे पास नहीं हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यह मन वहाँ भागता है, जहाँ हमारी पहुँच नहीं होती। मन कभी प्रसन्न होने वाला नहीं है। वह बस और और के चक्कर में रहता है। इस मन का सूत्र पकड़ने में हम असमर्थ रह जाते हैं।
इस मन की माया को आज तक कोई नहीं समझ सका। ऋषि-मुनि भी इसे वश में करने या जीतने के प्रयास में हार जाते हैं। यह हर व्यक्ति को नाच नचाता रहता है। न चाहते हुए भी हम मनुष्य इस दुसाध्य मन की कठपुतली बनकर इसके कहने के अनुसार चलते रहते हैं। अनेक बार ठोकर खाकर भी हम सम्हलते नहीं हैं। बार-बार इसके झॉंसे में आकर परेशान होते हैं। हमें समझ नहीं आता कि मन के कहे अनुसार अथवा उसके पीछे भागने का कोई भी लाभ होता है क्या?
अपने मन को ध्यान के द्वारा एकाग्र किया जा सकता है। विचारणीय यह है कि इस ध्यान को लगाने के लिए भी तो मन को साधना अनिवार्य हो जाता है। जब ईश्वर का भजन करने बैठो, तब इस दुष्ट मन को सारे जहान की बातें याद आने लगती हैं। यानी उस समय वह यहाँ वहाँ भटकने लगता है। जिन विषयों को हम कभी का ठण्डे बस्ते में डाल चुके होते हैं, वह उन्हें भी खोद-खोदकर बाहर निकाल लाता है। फिर भी इस मन को साधने से ही हमारा कल्याण सम्भव हो सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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