सोमवार, 28 अप्रैल 2025

अपने व्यवहार से शत्रु और मित्र

अपने व्यवहार से शत्रु और मित्र

इस संसार में जब मनुष्य का जन्म होता है तब उसे अपने रिश्ते ईश्वर की ओर से उपहार स्वरूप मिलते हैं। ज्यों-ज्यों वह बड़ा होता है, वह अपने मित्र बनाने लगता है। आयु के साथ-साथ उसे मित्र बनाने की समझ आने लगती है और वह अपने मित्रों का चुनाव करने लगता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि रिश्तों को चुनने की स्वतन्त्रता उसे नहीं मिलती। वह केवल अपने मित्रों का चुनाव कर सकता है। उन लोगों के साथ उसका जैसा व्यवहार होता है, उसी के अनुरूप वे रिश्ते प्रगाढ़ होते रहते हैं यानी बनते या बिगड़ते हैं। 
          आज के समय में मनुष्य यद्यपि अपनी लाभ-हानि को देखते हुए सम्बन्ध बनाने का प्रयास करता है। जिन बन्धु-बान्धवों से उसे अपना स्वार्थ सिद्ध होता दिखाई देता है, उनसे वह अपनी समीपता बढ़ाने लगता है। दूसरी ओर जहॉं उसे उनसे कुछ पाने की आशा नहीं होती, उनसे वह किनारा करने लगता है। आधुनिक समाज में व्यक्ति के स्वार्थ रिश्तों पर भारी पढ़ने लगे हैं। बड़े दुख की बात है कि उसी के अनुसार वह उनको परखना चाहता है।
            वैसे देखा जाए तो इस संसार में जब ईश्वर मनुष्य को बच्चे के रूप में भेजता है तो वह एक कोरी स्लेट की तरह होता है। वह बहुत ही सरल हृदय होता है। उस मासूम बच्चे को लोग भगवान का रूप कहते हैं क्योंकि वह दुनिया के छल-कपट, प्रपंच से दूर होता है। जैसे जैसे वह बड़ा होता है उसे इस दुनिया की हवा लगने लगती है तो वह हर प्रकार के छल-फरेब सीखने लगता है। उसका भोलापन जाने कहॉं तिरोहित हो जाता है। उसे दुनियादारी की समझ अच्छे से आने लगती है।
           इस दुनिया में रहकर मनुष्य कुछ लोगों को अपना मित्र बना लेता है। इसके विपरीत अपने छल छद्म से वह कुछ लोगों को अपना शत्रु बना लेता है। यह सब उसके अपने व्यवहार का ही परिणाम होता है। इसी विचार को 'चाणक्यनीति:' में आचार्य चाणक्य ने हमें समझाया है- 
        न क कस्यचित् शत्रु: न क कस्यचित् मित्रम्।
          व्यवहारेण जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा।।
अर्थात् कोई किसी का मित्र नहीं होता  है और न ही कोई किसी का शत्रु होता है। हम अपने व्यवहार से ही शत्रु और मित्र बनाते हैं।
           मित्र बनाना और मित्रता करना बहुत सरल है परन्तु उसे निभाना बहुत कठिन होता है। जब तक हम निःस्वार्थ भाव से मित्रता निभाते हैं तो हमारे सम्बन्ध लम्बे समय तक बने रहते हैं। हमारे स्वार्थ जब टकराने लगते हैं तब वह मित्रता नहीं रह जाती बल्कि व्यापार बन जाती है। यदि हमारे श्मशान जाने तक हमारा साथ निभाती है तो वास्तव में वही मित्रता कहलाती है। सही मायने में हम तभी सच्चे मित्र होते हैं। मित्रता की परिभाषा और सच्ची पहचान ही यही है।
         शत्रु बनाना सबसे आसान कार्य होता है। हम अपनी स्वयं की गलतियों से लोगों को अपना शत्रु बना बैठते हैं। हमारा अहं, हमारा अविवेक, हमारा जनून ही हमारे सिर पर चढ़कर नाचने लगते हैं, उस समय हमें लगता है कि हमें दुनिया में किसी की भी आवश्यकता नहीं है। हमारे यही विचार हमारे दुश्मन बन जाते हैं और बन्धु-बान्धवों को हमारा शत्रु बनाने का काम बखूबी निभाते हैं। इस प्रकार का व्यवहार करके जाने-अनजाने हम अपने शत्रुओं की संख्या में वृद्धि करते जाते हैं।
          राजनीति में तो शत्रु व मित्र की पहचान करना बहुत कठिन है। पता ही नहीं चलता कि कौन मित्र हैं और कौन शत्रु। इसका एक ही कारण है सत्तालोलुपता। सत्ता को पाने के लिए किसी भी बाप बनाया जा सकता है और किसी से भी विलग हुआ जा सकता है। ऐसी स्थिति बनने अथवा होने पर इस प्रकार से दुश्मनी का प्रदर्शन किया जाता है मानो वहाँ कुत्ते और बिल्ली का वैर है। यानी वे कभी मित्र रहे ही नहीं थे। कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीति के क्षेत्र में कौन शत्रु है और कौन मित्र कहना कठिन-सा होता है। वहॉं शत्रु और मित्र की परिभाषा कब बदल जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। इस तरह वहॉं पर बनने वाले सम्बन्ध कभी स्थाई नहीं होते।
           इस चर्चा का सार यही है कि हर मनुष्य को सोच-समझ कर शत्रु व मित्रों का चुनाव करना चाहिए। इससे धोखा खाने से बचा जा सकता है। अपना जीवन सुख और शान्ति से व्यतीत किया जा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

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