झूठ यदि बारबार बोला जाए तो वह सच नहीं बन जाता। उसे कितना ही जोर देकर सच बनाने का यत्न किया जाए या चिल्ला कर सुनाया पर अंतत: उसकी पोल खुल ही जाती है। कहते हैं न-
'झूठ के पाँव नहीं होते।'
कुछ समय के लिए उस व्यक्ति विशेष पर लोग विश्वास कर लेते हैं पर शीघ्र ही उसकी सच्चाई सबके सामने आ जाती है। इसका खास कारण है, वह यह है कि जितनी बार उससे चर्चा करेंगे उतनी बार उसके कथन में अंतर होगा। जो व्यक्ति झूठ का सहारा लेता है उसकी बात में वज़न नहीं होता। जितनी बार वह अपनी अकड़ दिखाने के लिए दूसरों को अपना किस्सा सुनाएगा उतनी ही बार उसके बयान का अंतर स्पष्ट समझ में आ जाएगा। इसी से सबको पता चल जाता है कि वह झूठ बोल रहा है।
उपनिषद का यह मन्त्रांश हमें समझाता है-
'हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।'
इसका अर्थ है कि स्वर्णिम पात्र से सत्य का मुख ढका हुआ है। यह सर्वथा सत्य है। पर विचारणीय है कि जब वह स्वर्णिम पात्र हट जाएगा तो चमचमाता हुआ सत्य सबके समक्ष उपस्थित हो जाएगा। तब वही स्थिति होगी-
'सच्चे का बोलबाला झूठे का मुँह काला।'
जब मनुष्य की सच्चाई सबके सामने आती है तब उसे सबके सामने शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है। उसे अपनी नजरें झुकानी पड़ती हैं और अकड़ छोड़कर क्षमा याचना करनी पड़ जाती है। कई बार उस झूठ का मूल्य उसे अपने अहम रिश्तों से चुकाना पड़ सकता है। सारा जीवन उसे अपने इस झूठ के व्यवहार करने का मलाल रहता है। कभी-कभी उसे इस झूठ के व्यापार के लिए उसे अनचाही स्थितियों का सामना भी करना पड़ता है।
असत्यवादी को कोई भी पसंद नहीं करता। उसकी बातों को चटकारे लेकर सभी सुनते हैं पर पीठ पीछे जमकर बुराई करते हैं और उसकी खिल्ली उड़ाते हैं।
हमारे ग्रन्थ हमें इसीलिए चेतावनी देते हैं कि-
'सत्यमेव जयते नानृतम्।'
अर्थात सत्य की सदा जीत होती है झूठ की नहीं। जब यह सार्वभौमिक सत्य है तो हम इसे कैसे झुठला सकते हैं?
यहाँ इस विषय पर भी मनन करना आवश्यक है कि जब हम दूसरों के साथ प्रसन्नता से असत्य का व्यवहार करना चाहते हैं पर सबसे अपने लिए सत्य का व्यापार क्योंकर चाहते हैं? यह विरोधी स्वभाव किसलिए?
हमारे बच्चे, घर-परिवारी जन, बन्धु-बान्धव अथवा अधीनस्थ यदि हमारे साथ असत्य बोलते हैं या व्यवहार करते हैं तो हम उन्हें भला-बुरा कहते हैं, कोसते हैं और उन्हें अपमानित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। उनसे अपना संबंध विच्छेद करने तक के लिए तैयार हो जाते हैं। पर तब भी अपने गिरेबान में झाँकने का जरा भी कष्ट नहीं करते।
यदि सब लोग यह समझ पाएँ कि हमें वही काटने को मिलेगा जो हम बोएँगे तो सभी के आचरण में बदलाव की कल्पना हम कर सकेंगे। यानि कि असत्य के स्थान पर सत्य अथवा झूठ के बजाय सच का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। बहुत-सी बुराइयों का अंत भी हो जाएगा।
यह एक कठोर सत्य है कि सत्य का मार्ग बहुत कठिन होता है। इस मार्ग पर चलने में पग-पग पर परेशानियों का सामना करना पड़ता है परन्तु फिर भी इसी मार्ग पर चलना सदा ही श्रेयस्कर होता है।
रविवार, 12 अप्रैल 2015
झूठ सच नहीं हो सकता
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