जीव मरणधर्मा है। मरणधर्मा का अर्थ है कि जिसका जन्म इस पृथ्वी पर हुआ है उसे इस संसार से विदा लेनी पड़ती है अर्थात उसका अंत निश्चित है। इसीलिए इस पृथ्वी को मृत्युलोक कहते हैं। इस मृत्युलोक में जो जन्म लेता है चाहे वह मनुष्य है, पशु-पक्षी है, पेड़-पौधे हैं यानि की सम्पूर्ण चराचर जगत अपना-अपना समय पूरा करके इस संसार से विदा ले लेता है। अपना समय से तात्पर्य यह है कि अपने कर्मों के अनुसार ईश्वर जो आयु निर्धारित करके धरा पर भेजता है वही उसका अपना समय कहलाता है।
इस असार संसार से विदा लेने का कोई-न-कोई बहाना बन जाता है। उसे हम बीमारी, दुर्घटना, हार्टफेल आदि कुछ भी नाम दे सकते हैं। इनके अतिरिक्त कभी-कभी प्राकृतिक आपदाएँ तूफान, बाढ़, भूकम्प आदि भी जीव की मृत्यु के कारण बन जाते हैं।
इस पृथ्वी पर आने वाले हर मनुष्य के कुछ सपने होते हैं। वह अपने घर-परिवार, अपने माता-पिता व पत्नी-बच्चों के लिए सपने देखता है जिन्हें जी जान लगाकर वह पूरा करने का यत्न करता है। बहुत से सपनों को वह अपने जीवन में पूरा भी कर लेता है। पर जो सपने अधूरे रह जाते हैं उनके लिए उसके मन में मलाल रहता है। इसलिए वह जुगत भिड़ाने की फिराक में रहता है।
इस संसार में जन्म लेने के पश्चात से ही जीव धीरे-धीरे पल-पल करके मृत्यु की ओर बढ़ता रहता है। फिर भी इस सत्य से वह अंजान बना रहना चाहता है कि एक दिन उसे इस संसार को छोड़कर जाना पड़ेगा। यदि वह मृत्यु को सदा याद रखे तो दूसरों पर अत्याचार और अनाचार कभी न करे। चौरी, डकैती, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार आदि समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त न हों।
मनुष्य सदा ही सबके हित के कार्यों को करता रहे। हर किसी जीव को अपना समझते हुए भाईचारे का व्यवहार करे। ईश्वर से सदा डरते हुए समाज के हितार्थ कार्यों को करता हुआ मनुष्य खुशी-खुशी इस दुनिया से विदा ले। उसके मन में किसी प्रकार का कोई मलाल शेष न रहे। उसे यह संतोष रहे कि वह इस संसार में आने के अपने उद्देश्य को भूला नहीं अपितु अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की ओर निरन्तर बढ़ता जा रहा है।
मनुष्य हर क्षण मृत्यु की ओर कदम बढ़ाता जाता है। बीमारियों, परेशानियों या दुखों के आने पर वह तिल-तिल करके मरता रहता है। पर फिर भी उसकी जीने की इच्छा (जिजीविषा) बलवती रहती है। वास्तव में मनुष्य की मृत्यु उसी दिन हो जाती है जब उसके मन में किसी भी कारण से जिजीविषा समाप्त हो जाती है अथवा जिस दिन उसकी उम्मीदें व सपने मर जाते हैं। उसका स्वयं पर विश्वास नहीं रहता अर्थात उसका आत्मविश्वास क्षीण हो जाता है।
जब तक आयु शेष हैं तब तक अपने सभी आवश्यक कार्यों को पूर्ण करने का यत्न करना चाहिए। अन्यथा जब मृत्यु समक्ष होगी या अन्तिम समय आएगा तब अपनी असफलताओं पर दुख होगा। फिर पश्चाताप करने का समय भी नहीं होगा। ईश्वर से क्षमा याचना करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकेंगे। तब अपने दायित्वों या सपनों को पूरा करने के लिए और थोड़े से समय की मोहलत भी उस मालिक से नहीं मिलेगी।
रविवार, 26 अप्रैल 2015
मरणधर्मा जीव
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