जब मै था तब हर नहीं अब हरि है मैं नाँहि।
अंधियारा मिट गया दीपक रेखा माँहि॥
इस दोहे को पढ़कर मन भाव विभोर हो उठता है। मन सोचने के लिए विवश हो जाता है कि ऐसी स्थिति कब आएगी जब उस परमात्मा के साथ मैं एकाकार हो पाऊँ। मुझमें और उसमें कोई भेद न रहे। हम दो नहीं एक हो जाएँ।
अंधेरे कक्ष में जब एक छोटा-सा हम दीपक जलाते हैं तो तब उस अंधियारे का नामोनिशान तक मिट जाता है। फिर वह अंधकार प्रकाश का रूप होकर उजाला करने लगता है। हम उस समय समझ ही नहीं पाते कि कभी वहाँ कभी अंधेरा था।
इसी प्रकार प्रभु की निष्काम उपासना करते-करते जब उससे लौ लग जाती है तब हम उसी का रूप हो जाने के लिए व्याकुल हो जाते हैं। दिन-रात उसी के विषय में ही सोचते रहते हैं। हमारे सम्पूर्ण क्रियाकलाप उसी के निमित्त होने लगते हैं। हमारा अपना स्वयं का कुछ नहीं रहता और हम कह उठते हैं-
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सब तोर।
तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर॥
जब हम इस दुनिया में मोहमाया के बंधन में फंसे हुए चौरासी लाख योनियों में ही भटकते रहते हैं तब ईश्वर की दी हुई सारी नेमते मात्र केवल हमारी होती हैं। उनसे जुदाई के बारे में हम सोच भी नहीं सकते। यदि उनसे विमुख होना पड़े तो हमारे लिए बहुत कठिनाई हो जाती है। अपनी कमियों एवं हानियों का ठीकरा उस प्रभु के सिर फोड़ते हैं। इतने पर भी मन नहीं भरता तो उस समय हम रोते हैं व चीखते-चिल्लाते हैं। सबके साथ ईश्वर को भी बुरा-भला कहते हैं और पानी पी-पीकर उसको कोसते हैं।
कठिन समय जब आता है तब हम अपना आपा खो देते हैं और यह चाहते हैं कि ईश्वर सिर्फ हमारी सुने और हमारे कष्ट दूर करे। तब हम उसकी पूजा-अर्चना करते हैं।
सुखद समय आते ही हम अहंकारी होने लगते हैं और यह भी हम भूल जाते हैं कि उस पिता ने हमें इस संसार में भेजा है। वह चाहता है कि हम जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर अपने अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने में सफल हो जाएँ।
हमारा अहम हमें उस प्रभु से दूर कर देता है। जब तक हम अपने घमंड में रहते हैं तब किसी को कुछ नहीं समझते। ईश्वर तक की हस्ती को मानने से इंकार कर देते हैं। रावण, कंस, हिरण्यकश्यप आदि न जाने कितने ही अहंकारियों के उदाहरणों से इतिहास भरा हुआ है। घमंडी का सिर हमेशा नीचा होता है और उसका अंत भी अच्छा नहीं होता।
इसीलिए जब हम अपने अहम में डूब जाते हैं तो वह प्रभु हमसे दूर हो जाता है। हम दुनिया में अकेले रह जाते हैं। परन्तु जब संसार की असारता को जानकर उस मालिक से हम लौ लगा लेते हैं तब उसे पाने की तड़प हमें उसके करीब ले जाती है।
दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि ईश्वर के साथ एकाकार होने के लिए अहम का त्याग करना पड़ता है व सच्चे भाव से उसकी शरण में जाना होता है। इसीलिए हमारा अहम उससे अनावश्यक ही दूरी बना लेता है। अहम का त्याग करते ही हम उसके हो जाते हैं और वह हमारा हो जाता है। उपर्युक्त दोहे में यही कहा गया है कि जब मैं(अहम) था तब हरि मेरे पास नहीं था। जब मैं नहीं है तो वह हरि मेरे पास है। हमारे मन का सारा अंधकार दूर हो जाता है हम भी परमात्मा की तरह प्रकाशमय हो जाते हैं। तेरे और मेरे का भेद समाप्त हो जाता है।
शनिवार, 4 अप्रैल 2015
ईश्वर के साथ एकाकार
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