मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

स्वार्थ पूर्ति

स्वार्थों की पूर्ति करने में हम इतना अधिक डूब जाते हैं कि दीन-दुनिया को भूल जाते हैं। दिन और रात के चौबीस घंटे हमें कम पड़ने लगते हैं। उस समय सोचने लगते हैं कि काश हम समय को भी रबर की तरह खींच सकते।
         अफसोस न हम समय के साथ छेड़- छाड़ कर सकते हैं और न ही दिन के घंटे बढ़ा सकते हैं। चौबीसों घंटे कोल्हू के बैल की तरह हम जुटे रहते हैं। हमारे ये स्वार्थ हैं कि समाप्त होने का नाम नहीं लेते।
         आज हम मैं और मेरा परिवार यानि हम पति-पत्नी और हमारे बच्चे तक सीमित होते जा रहे हैं। जितना अधिक हमारा दृष्टिकोण संकुचित हो रहा है उतना ही स्वार्थ हम पर हावी होता जा रहा है। अपने धन-वैभव का प्रदर्शन तो हम बहुत करते हैं। परिवार जनों या बन्धु-बान्धवों की तो छोड़ो भाई-बहन तक को उसकी हवा नहीं लगने देते। माता-पिता जिनका ऋण हम आयुपर्यन्त सेवा करके भी नहीं चुका सकते उनसे कुछभी साझा नहीं करना चाहते।
        ईश्वर हमें बिन माँगे बहुत कुछ देता है उसका धन्यवाद करना भी हम अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। ईश्वर प्रदत्त नेमतों पर हम अपना हक जताते हैं और जिन पर दूसरों का हक है वह भी छीन लेना चाहते हैं। जिनके प्रति हमें दायित्व निभाने चाहिए उनसे हम स्वार्थवश किनारा करते जा रहे हैं।
       यह भूल जाते हैं कि जो अमानत ईश्वर ने हमें सौंपी है वह केवल हमारे लिए नहीं है बल्कि घर-परिवार, भाई-बन्धुओं, समाज व देश का भी उसमें अंश है। जब हम अमानत में खयानत करते हैं तो भूल जाते हैं कि जो हम कर रहे हैं वह एक अपराध है। भौतिक जगत में अमानत में खयानत करने वाले को माफी नहीं सजा मिलती है। तो फिर उस मालिक से हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि हमें माफ कर देगा।
       हम सुनते हैं और कहते हैं कि उस मालिक की लाठी बेआवाज़ होती है।
        पता भी नहीं चल पाता और बहुत ही कठोर दण्ड हमें मिल जाता है। फिर उस समय हम बहुत दुखी होते हैं और सारी दुनिया में अपने कष्टों को गाते फिरते हैं। सुख में चाहे किसी को पूछा हो या न पूछा हो पर दुख में बेगानों को अपना बनाना चाहते हैं। ईश्वर को उलाहना देते हैं और कोसते हैं। उस पर पक्षपात करने का आरोप लगाते हैं। परन्तु फिर भी न तो अपने गिरहबान में झाँककर देखते हैं और न ही आत्मविश्लेषण करने की आवश्यकता समझते हैं।
       हमारी स्वार्थी प्रवृत्ति हमें कहीं का नहीं छोड़ती। इनको पूरा करते हुए बहुधा लोग गलत रास्ते पर चलने लगते हैं। देश व समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त होने लगते हैं। यह जब हमारे सिर पर चढ़कर बोलने लगता है तब पारिवारिक विघटन तक की स्थिति बन जाती है। उसका परिणाम घर-परिवार व स्वयं तो भोगते ही हैं परन्तु वे बच्चे अधिक प्रभावित होते हैं  जिनका कोई दोष नहीं होता।
       हमें सदा ही उस प्रभु का धन्यवाद करना चाहिए जिसने हमें अपार खजाने दिए हैं। यदि वह भी हमारी ही तरह स्वार्थी हो जाए तो कल्पना कीजिए हमारी कैसी दुर्दशा होगी। ईश्वर तथा प्रकृति की भाँति उदारहृदय बनिए और जीवन में आनन्द का भोग करिए।
       इस स्वार्थ वृत्ति से ऊपर उठकर जब हम परमार्थ के विषय में सोचने लगेंगे तब बहुत-सी समस्याएँ स्वतः हल हो जाएँगी। दिग्दिशाओं में यश फैलेगा सो अलग। इसलिए मित्रो, घाटे का सौदा करना छोड़ दीजिए।

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