मानव शरीर में मन एक बहुत पवित्र स्थान है। हमारे ऋषि-मुनि इसे मन्दिर की संज्ञा देते हैं। उसमें ईश्वर की प्राण प्रतिष्ठा करके उसकी आराधना की जाती है।
विचारणीय है कि यह मन मन्दिर कैसे बने? इसे मन्दिर को बनाने का तरीका क्या है? इस मन को मन्दिर बनाने का बहुत ही सरल उपाय भुलेशाह जी ने हमें सुझाया है। वे कहते हैं-
'भुलया रब दा की पाना एत्थे पुटना ओत्थे लाना।'
इसका अर्थ है कि ईश्वर को पाना बहुत ही सरल है। मन को इधर से हटाकर उधर प्रभु की ओर मोड़ दो।
हम सभी जानते हैं कि चावल की खेती करते समय उसे एक स्थान पर बोया जाता है। कुछ समय पश्चात उसे वहाँ से उखाड़कर दूसरे स्थान पर रोपा जाता है। उसी तरह मन को सांसारिक बंधनों से विमुख करके ईश्वर की ओर उन्मुख करना पड़ता है।
कहने के लिए बड़ा सरल व सीधा-सा उपाय है यह। परन्तु पूरा जीवन बीत जाता है इस चंचल मन को साधते हुए। यह ऐसा बेलगाम घोड़ा है जो हमारे वश में आता ही नहीं। इसको काबू में रखने के लिए भगवान कृष्ण ने गीता में उपाय बताये हैं- अभ्यास और वैराग्य।
इसे नियन्त्रित करने के लिए पहला उपाय है निरन्तर अभ्यास करना। मन को बार-बार ईश्वर की आराधना में प्रवृत्त करना। वह इधर-उधर भागेगा पर उसे पुनः वापिस लेकर आना। दूसरा उपाय है वैराग्य यानि सांसारिक पदार्थो से आसक्ति का त्याग। सभी सांसारिक कार्यों को करते हुए असार संसार में उसी प्रकार रहना जैसे जल में कमल रहता है।
हमारा मन एक ऐसा पात्र है जिसमें प्रभु के प्रति श्रद्धा व भक्ति के भाव होने चाहिएँ। हम लोगों ने अपने मन को ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, अहंकार आदि दुर्गुणों का आश्रय बना रखा है। जब तक ये सभी वहाँ घर बनाकर रहेंगे तब तक ईश्वर का निवास नहीं बन सकता।
जैसे किसी पात्र में हमने कोई वस्तु डालनी हो तो पहले यह विश्वास करना पड़ता है कि वह खाली हो। यदि उसमें पहले से कुछ डालकर रखा हो तो नया पदार्थ उसमें नहीं आ सकेगा। इसलिए बर्तन को पहले खाली करना पड़ेगा और धोकर सुखाना होगा तभी नया पदार्थ उसमें आ पाएगा।
उसी प्रकार हमें अपने मन में विद्यमान इन सभी दुर्गुणों को वहाँ से दूर करके मन रूपी पात्र को खाली करना होगा। फिर उसमें उस मालिक के नाम की लौ जगानी होगी तभी वह धुल-पुछकर स्वच्छ होगा। ईश्वर का वास हमारे मन में तभी हो सकता है यदि उसमें प्यार, भाईचारा, दया, ममता, आपसी विश्वास, परोपकार आदि सद् भावनाओं का उदय होगा।
ईश्वर हमारे इस मन में सदा ही वास करता है पर हम अपने अहम व दुर्गुणों के कारण उससे दूर होते जाते हैं। एक समय ऐसा आता है जब हम न उसे अपने अंतस में महसूस कर सकते हैं और न ही उसकी चेतावनी एवं उत्साह वर्धक प्रेरणा को सुन पाते हैं। वह तो हमारी रक्षा हर कदम पर करता है पर हम उसकी कृपा को समझते ही नहीं हैं।
जब हम अपने मन को सद् गुणों से प्रकाशित करेंगे तभी वास्तव में सही मायने में वह चमकता हुआ मन्दिर बन जाएगा। तब हम वहाँ हम अपने प्रभु को प्रतिष्ठित कर सकेंगे। तभी इस गीत की पंक्ति को सार्थक कर सकेंगे-
'तेरे पूजन को भगवान बना मन मन्दिर आलीशान।'
बुधवार, 29 अप्रैल 2015
मन मन्दिर
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