सोमवार, 2 नवंबर 2015

जीवन सीढ़ियों की तरह

हमारा जीवन सीढ़ियों की तरह है। ऊपर जाओ तो सफलता की बुलन्दियों को छू लो और यदि नीचे उतरने पर आएँ तो गिरावट का कोई अन्त नहीं। इनके अतिरिक्त यदि घुमावदार सीढ़ियों में उलझ गए तो फिर मनुष्य को चक्करघिन्नी की तरह गोल-गोल घूमते रह जाना पड़ता है।
           जितना हम जीवन में पढ़-लिखकर योग्य बनते हैं उतनी ही उन्नति करते जाते हैं और फिर सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते जाते हैं। तब धीरे-धीरे हम हर प्रकार की सुख-समृद्धि प्राप्त करते हैं। जब वह अपने लक्ष्य तक पहुँचता है और ऊपर की सीढ़ी पर खड़ा होकर जब नीचे देखता है तब उसे सब बौने दिखाई देते हैं। उस समय उसे अपने साथ कोई भी खड़ा नहीं दिखता। वह स्वयं को निपट अकेला पाता है। इसका अर्थ यही है कि जितना मनुष्य ऊँचाइयों को छूता है उतना ही उसके पास समयाभाव हो जाता है। अपने कार्यालयीन दायित्वों को निपटाने में दिन-रात व्यस्त रहता है। चाहकर भी अपने पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों को वाँच्छित समय नहीं दे पाने के कारण वह बिल्कुल अकेला रह जाता है।
          इस समय अपने उच्च पद के कारण मनुष्य को अहंकार से बचना चाहिए बल्कि उससे दूर रहना चाहिए तभी तो उसकी महानता तभी बनी रह सकती है। यदि वह चाटुकारों के मध्य घिरकर घमण्डी हो जाए तो उसका पतन निश्चित होता है।
          सीढ़ियों से नीचे उतरने पर मनुष्य नीचे आ जाता है। इसी प्रकार यदि मनुष्य अपने जीवन में नीचे की ओर जाने लगे तो वह कहाँ तक पतन के रास्ते पर चलता जाएगा कुछ भी नहीं कहा जा सकता। यह अधोपतन अन्तत: मनुष्य के विनाश का कारण बन जाता है जो उसे सबसे दूर कर देता है।
         उसके अपने ही घर-परिवार के लोग उसे एक कलंक की तरह देखते हैं जो उनके सपनों और आशाओं को चूर-चूर कर रहा है। तब वह सभ्य समाज पर भार या बोझ  की तरह हो जाता है। सभी लोग उसको हिकारत की नजर से देखते हैं। उससे मित्रता करना आम इंसान पसंद नहीं करता। सभी उससे दूर जाने की सोचते हैं और मौका मिलने पर अपमानित करने से नहीं चूकते।
           ऐसा व्यक्ति समाज विरोधी कार्य करता हुआ न्याय व्यवस्था का अपराधी बनकर इधर-उधर छुपता फिरता है। उसका दिन-रात का चैन नष्ट हो जाता है। अपने बन्धु-बान्धव ही उससे किनारा कर लेते हैं और वह अकेलेपन का दंश भोगने के लिए विवश हो जाता है।
           घुमावदार सीढ़ियों पर गोल-गोल घुमते हुए हम लक्ष्य तक पहुँचते हैं। इसी प्रकार जीवन में भी यदि मनुष्य स्थिर बुद्धि न हो तो वह यहाँ-वहाँ भटकता रहता है। कभी सज्जनों के सगति में उन्नति करता है। यदि दुर्भाग्यवश दुर्जनों की संगति में फंस जाए तो पिछड़ जाता है।
          जीवन में अनावश्यक घूमते हुए वह अपना अमूल्य समय बरबाद कर देता है पर अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाता। ऐसा व्यक्ति जीवन की बाजी हारने लगते है। उसे कदम-कदम पर निराशा का सामना करना पड़ता है। अपने ढुलमुल रवैये के कारण वह चाहकर भी आगे नहीं बढ़ पाता बल्कि फिसलकर पीछे चला जाता है जो निश्चय ही उसकी निराशा का कारण बन जाता है। आगे चलकर ही ऐसा व्यक्ति सोचने की अधिकता के कारण मानसिक रोगों  का शिकार बन जाता है।
         जहाँ तक हो सके अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। फिर उसके अनुसार परिश्रम करके उसे पाने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा नहीं है कि सफलता शत-प्रतिशत मिलेगी। कभी-कभी मनुष्य को असफलता का मुँह भी देखना पड़ेगा। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि निराश होकर बैठा जाए। पुन: पुन: प्रयास करने पर ईश्वर अवश्य फल देता है।
          सीढ़ियों की तरह जीवन को ऊँचाई की ओर ले जाने का प्रयास करना हितकर होता है। इसके साथ ही यह भी याद रखना आवश्यक है कि यही सीढ़ियाँ नीचे भी लाती हैं और गोल-गोल भटकाती भी हैं। इसलिए अपनी उन्नति चाहने वाले मनुष्य के लिए सचेत रहना बहुत जरूरी है।
चन्द्र प्रभा सूद
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