निर्विवाद सत्य है कि माता-पिता का स्थान संसार में सबसे ऊपर है। ईश्वर को हम लोगों ने कभी नहीं देखा परन्तु हाँ, उसकी उपस्थिति को हम हर कदम पर अनुभव करते हैं। माता-पिता साक्षात ईश्वर का स्वरूप हैं जो उसे इस पृथ्वी पर लाने का महान कार्य करते हैं। आजन्म उनकी सेवा करके भी मनुष्य उनके इस ऋण से उऋण नहीं नहीं हो सकता। जो मनुष्य उन्हें ईश्वर की तरह मानते हुए उनका हर प्रकार से ध्यान रखता है और उनका सम्मान करता है उसे सभी प्रकार के सुख-साधन ईश्वर उन्हें देता है।
इनका दिल दुखाने के विषय में तो सोचना भी अपराध है। वे मनुष्य सारा जीवन परेशान रहते हैं जो अपने माता-पिता की अवहेलना करते हैं। मात्र दिखावा करने से उनकी सेवा नहीं की जा सकती। उसके लिए मन में पूर्ण श्रद्धा रखनी आवश्यक होती है। यहाँ मुझे एक कथा याद आ रही है।
कथा कहती है कि कभी किसी समय देवताओं के मध्य यह विवाद उत्पन्न हुआ कि सबसे पहले पूजा किसकी हो? इसलिए सभी देवता मिलकर ब्रह्मा जी के पास गए और उनके समक्ष अपनी समस्या रखी। तब ब्रह्मा जी ने कहा कि जो देवता समस्त पृथ्वी की परिक्रमा करके सबसे पहले लौटकर आएगा, सभी देवों में उसकी उपासना पहले की जाएगी।
सभी देवगण अपने लक्ष्य का संधान करने के लिए चल पड़े। गणेश जी अपने वाहन मूषक के साथ वहीं रुके रहे। यह देखकर देवर्षि नारद परेशान हो गए कि गणेश जी परिक्रमा के लिए क्यों नहीं जा रहे। उनका वाहन मूषक है जो धीरे-धीरे चलता है फिर भी उन्हें कोई चिन्ता नहीं है हारने की। नारद जी ने जब उनसे इसका कारण पूछा तो गणेश जी ने अपने माता-पिता यानि कि भगवान शंकर और भगवती पार्वती की परिक्रमा की और कहा कि मेरी परिक्रमा तो पूर्ण हो गई।
पूछने पर उन्होंने बताया कि माता-पिता के चरणों में ही मेरा सारा संसार है। अतः मुझे अन्यत्र कहीं भी जाने की आवश्यकता ही नहीं है।
अपने माता-पिता की परिक्रमा करके गणेश जी सबसे पहले ब्रह्मा जी के पास पहुँचे। सभी देवता जब लौटे तो गणेश जी के वाहन मूषक के पैरों के निशान देखकर वे हैरान हो गए कि गणेश जी सबसे पहले परिक्रमा करके कैसे लौट आए? तब ब्रह्मा जी ने बताया कि गणेश जी ने अपने माता-पिता की परिक्रमा करके मानो सारे संसार की परिक्रमा कर ली हैं। उनकी इसी मातृ-पितृ भक्ति के कारण ही किसी भी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान का सम्पादन करते सब देवताओं में सबसे पहले गणेश जी वन्दना की जाती है।
यह कथा हमें समझाती है कि माता-पिता के चरणों में सम्पूर्ण जगत है, जो इस सत्य का मनसा पालन करता है उस जैसा मनुष्य तो इस धरा पर कोई और हो नहीं सकता। माता-पिता घर-परिवार का आधार स्तम्भ होते हैं। ये वह धुरी होते हैं जिनके ईर्दगिर्द परिवार का पहिया घूमता रहता है। इसीलिए कहा जाता है- 'माता-पिता की बादशाही होती है और भाई-बहनों का व्यापार।'
माता-पिता की सेवा और अर्चना को महत्त्व देते हुए निम्न श्लोक कहता है-
येन माता पिता सेव्या पूजिता वा
मन्दिरे तेन पूजा कृता वा न वा॥
अर्थात जो मनुष्य माता-पिता की सेवा और पूजा करता है वह मन्दिर जाकर पूजा करे अथवा न करे।
हमारे शास्त्र भी यही मानते हैं कि मन्दिर में मूर्तियों के आगे माथा टेको या नहीं पर घर में जीवित विद्यमान साक्षात ब्रहम रूप माता और पिता की पूजा-अर्चना अवश्य करो। पूजा-अर्चना का अर्थ थाली सजाकर पूजा करना नहीं बल्कि उनकी आवश्यकताओं को पूर्ण करना और उन्हें यथोचित मान-सम्मान देना है। अपने लोक-परलोक को सुधारने के लिए कृत संकल्प हो
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 27 नवंबर 2015
माता पिता के चरणों में संसार
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