पगला मन मेरा
फूलों की तरह ही
नित मुस्कुराना और
भंवरों की तरह गुनगुनाना चाहता है
यह दिन-रात
नदी जैसी मस्ती में
निरन्तर बहना चाहता है
सारी बाधाओं को पार करना चाहता है
प्रात: पक्षियों के
मनमोहक कलरव
सुनकर यह दीवाना
चहुँ ओर चहकते हुए उड़ना चाहता है
यह मन मयूर
बादल की गरज
सुन करके मस्ती में
इधर-उधर झूमते हुए नाचना चाहता है
चातक पक्षी-सा
वर्षा की पहली बूँद
का आस्वादन करके
आनन्दित हो मत्त हो जाना चाहता है
सोचती हूँ अब
कैसे समझाऊँ मैं
इस पगले दीवाने को
मेरी कोई बात नहीं मानना चाहता है
यह नहीं जानता
इसकी मनोकामनाएँ
असीम हैं शायद यहाँ
पूर्ण नहीं होंगी कोई बताना चाहता है
पर यह है कि
किसी भी सूरत
नहीं समझना चाहता
बहुत मासूम, अल्हड़ बनना चाहता है
मैं अक्सर ही
सोचती हूँ कि आज
खत्म हो रही मस्ती को
यह अब प्रसन्नता से पाना चाहता है
शुभकर्मों से
मिल पाया यह
जीवन है तो अब सारी
ऊँचाइयाँ छू ले, ये मेरा दिल चाहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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