माता-पिता का दायित्व है कि अपने बच्चों को वे न सुनने की आदत डालें। इससे घर में शान्ति बनी रहती है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि बच्चा जब भी कुछ माँगे उसे न कह दिया जाए।
बच्चे का क्या है वह तो बाजार की हर वस्तु खरीदना चाहता है चाहे वे उसके काम की हो या नहीं। ऐसा करना किसी भी माता-पिता के लिए भी सम्भव नहीं होता। इतनी मंहगाई में उन्हें घर का बजट भी देखना होता है और सुख-दुख के लिए कुछ बचाना भी होता है। इसके अतिरिक्त बच्चों की शिक्षा और अपने बुढ़ापे के लिए कुछ बचत करनी होती है।
कभी-कभी बच्चे ऐसी वस्तु की माँगकर बैठते हैं जिसे खरीदना माता-पिता के लिए सम्भव नहीं हो पाता। उस समय उन्हें चाहिए कि वे अपने बच्चे को प्यार से समझाइए। उसे अपनी स्थिति से अवगत कराइए। यदि बच्चा समझ जाए तो ठीक है अन्यथा दृढ़ता से न कर दीजिए।
बच्चे माता-पिता के लिए अमूल्ल दौलत होते हैं। उनकी सुख-सुविधाओं को पूरा करने के लिए वे दिन-रात एक करते हैं। कोई नहीं चाहता कि उनके बच्चो को कभी गरम हवा का झौंका भी परेशान कर पाए।
कहने का तात्पर्य है कि आप अपने बच्चे की सभी जायज आवश्यकताओं और माँगो को पूरा कीजिए। यदि आपको लगता है कि कोई माँग अनावश्यक है तो दृढ़ता पूर्वक उसे नकार दीजिए। उस समय वह चाहे कितनी भी जिद करे उसे अनदेखा कीजिए और पिघलिए मत।
यदि एक बार उसको न कहने के बाद उसकी जिद या रोने-धोने पर आपने उसकी बात मान ली तो हमेशा के लिए समस्या हो जाएगी। वह सोचेगा कि एक बार कहने पर वस्तु नहीं मिली तो आसमान सिर पर उठा लेने से मिल जाएगी। परन्तु यदि आप अपने कथन पर अमल करेंगे तो बच्चा समझ जाएगा कि वह कुछ भी जुगत भिड़ा ले यहाँ दाल गलने वाली नहीं है।
एक-दो बार ऐसा करने पर धीरे-धीरे स्वयं ही बच्चे को समझ में आ जाएगा कि उसकी सारी फरमाइशों को पूरा नहीं किया जा सकता। उसके रोने-धोने अथवा जिद-बहस करने का कोई लाम नहीं होगा। फिर वह भविष्य में ऐसा व्यवहार नहीं करेगा। बच्चों को भी यह बात अच्छी तरह सख्ती से समझानी आवश्यक है कि माता-पिता के हाँ कहने का अर्थ होता है हाँ और उनके न कह देने का मतलब न होता है।
आज इक्कीसवीं सदी के बच्चे बहुत ही समझदार हैं। वे अपनी हद जानते हैं और उन्हें यह भी पता है कि उनके माता-पिता कहाँ तक उनकी बात मानेंगे और वे कहाँ तक उन्हें झुका सकते हैं। इसलिए वे बार-बार ऐसी नाजायज माँग नहीं करेंगे जिसके लिए उन्हें न सुनने को मिले।
माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों को जिद करने या रोने-धोने का अवसर ही न दें। आदर्श स्थिति तो यही है कि जिन वस्तुओं की उन्हें सचमुच आवश्यकता है उन्हें उनके माँगने से पहले ही लाकर दें। यदि किसी कारणवश आप ऐसा नहीं कर पाए तब उनके कहते ही खरीद दें। ऐसी स्थिति में घर में सदा सौहार्द का वातावरण बना रहता है।
मेरा अपना मत है कि बच्चों को यदि घर की वास्तविक स्थिति की जानकारी हो तो उन्हें अपने माता-पिता के न कहने का अर्थ समझ में आ जाएगा। फिर वे न तो अनावश्यक माँग करके माता-पिता को परेशान करते हैं और न ही फालतू की जिद करते हैं।
बच्चे आपके अपने हैं, उन पर आपका पूरा अधिकार है। उनसे डरने या उन्हें डराने की आवश्यकता नहीं है। उनके साथ मित्रवत व्यवहार कीजिए। बच्चों को अपने विश्वास में लीजिए, उनसे दूरी मत बनाइए। अपने पास बिठाकर समय-समय पर उनसे चर्चा करते रहिए। कोई-न-कोई सकारात्मक हल अवश्य ही निकल आएगा।
मंगलवार, 24 नवंबर 2015
बच्चों को न कहें
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