एकल परिवार में रहने वाले बच्चों को प्राय: माता और पिता दोनों का ही सारा प्यार व दुलार मिलता है। वहाँ उनके सारे नखरे भी उठाए जाते हैं। परिवार के सीमित होने के कारण बच्चों की ओर माता-पिता का पूरा ध्यान रहता है। बच्चों की हर छोटी-बड़ी जायज-नाजायज माँग को पूरा करने में माता-पिता कोई कसर नहीं रखते। वहाँ बच्चों को बिगाड़ने में माता-पिता दोनों की बराबर की भूमिका रहती है।
एकल परिवार के बच्चे अपेक्षाकृत अधिक जिद्दी व नकचढ़े होते हैं। अपनी जरा-सी जिद पूरी न होने पर सारे घर को सिर पर उठा लेते हैं। तोड़-फोड़ करना और घर के सामान को इधर-उधर फैंकना, रूठकर मुँह फुला लेना इन बच्चों के लिए मामूली बात होती है। जब तक माता-पिता उनकी जिद पूरी न करें अथवा पूरी करने का आश्वासन न दे दें तब तक ये सब चलता है।
अकेले रहने के कारण वे दूसरे बच्चों को बर्दाशत नहीं कर पाते। उनके साथ अपने खिलौने तथा अन्य वस्तुएँ साझा करने में उन्हें अच्छा नहीं लगता।
संयुक्त परिवारो में रहने वाले सबके साथ मिल-जुलकर रहना देखा-देखी स्वयं ही सीख जाते हैं। इन बच्चों के स्वभाव में अपेक्षाकृत रिश्तों की समझ अधिक होती है और वे उन्हें अच्छे से निभाते हैं।
ये बच्चे किसी के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते। असल में इसके लिए इन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। वास्तव में ये बच्चे अकेले घरों में रहते हैं जहाँ सब इनकी मरजी से चलता है। घर में यदि कुछ मेहमान आ जाएँ तो वे बेचैन होने लगते हैं। सबके आ जाने पर बातचीत से होने वाले शोर से वे प्राय: दूर रहना चाहते हैं। दूसरों की उपस्थिति में वे सदा असहज अनुभव करते हैं। इसलिए बारबार अपने माता-पिता से यही प्रश्न पूछते रहते हैं कि आए हुए मेहमान कब जाएँगे।
आज इक्कीसवीं सदी में शिक्षा के प्रचार-प्रसार होने से युवावर्ग के शिक्षित होने के कारण तथा बढ़ती मंहगाई के चलते पारिवारिक दायित्वों को पूरा करने की जद्दोजहद करनी पड़ती है। घर में समृद्धि भी आवश्यक होती है। इसलिए एकल परिवारों में माता और पिता दोनों ही अपनी रोजी-रोटी के कारण बहुत व्यस्त रहते हैं। इसलिए उनके बच्चे प्राय: क्रच में पलते हैं अथवा नौकरों की देखरेख में।
क्रच में तो फिर भी अनुशासन रखना पड़ता है। वहाँ पर बच्चों को खाना-पीना, सोना-जागना, खेलना आदि सभी कार्य समय पर करने होते हैं। यदि वहाँ पर ऐसा न किया जाए तो वे अपना व्यवसाय ठीक से नहीं चला सकते।
परन्तु नौकरों के पास पलने वाले बच्चों की परिस्थतियाँ विपरीत होती हैं। वहाँ बच्चे अपनी मनमानी करते हैं। वे जानते है कि नौकर उन्हें कुछ कह नहीं सकते। यदि जरा-सा भी कुछ नौकर कह दें तो फिर उनकी शामत आ जाती है। इसलिए वहाँ बच्चे नौकरों को दिनभर सताते रहते हैं और नचाते रहते हैं।
संयुक्त परिवारों में ऐसी समस्याएँ न के बराबर होती हैं। वहाँ बच्चे बड़ों की देखा-देखी स्वयं ही बहुत कुछ सीख जाते हैं।
आज परिस्थतियों के चलते एकल परिवार समय की माँग बन रहे हैं। माता-पिता को यह ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे इतना अधिक हाथ से न निकल जाएँ जो आने वाले समय में वे उनके अपने लिए तथा समाज के लिए सिरदर्द बन जाएँ।
माता-पिता का दायित्व है कि जब भी समय मिले बच्चों को अपने पास बिठाकर संस्कारित करें। सभी लोगों को यह बात सदा स्मरण रखनी चाहिए कि बच्चे केवल उनके नहीं हैं अपितु घर-परिवार एवं देश-समाज की अमानत भी हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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बुधवार, 25 नवंबर 2015
एकल परिवार
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