परम्परा यही है कि हर गृहस्थ को अपनी बेटी को विदा करके दूसरे घर अर्थात उसे उसके ससुराल भेजना होता है। ऐसा करना बहुत ही कठिन होता है। जो बेटी माता-पिता के जिगर का टुकड़ा होती है उसे अपने से अलग करना कोई सरल कार्य नहीं होता। उसके जाने से घर में खालीपन आ जाता है।
बेटी के रहने से घर में अनुशासन का माहौल हमेशा बना रहता है। वह अपने घर-परिवार को बाँधे रखती है। उसके चहकने से घर गुलजार रहता है। माता-पिता की वह सदा ही लाड़ली होती है। भाई-बहन के साथ लड़ते-झगड़ते कब वह इतनी बड़ी हो जाती है कि पता ही नहीं चलता और फिर उसकी विदाई का समय आ जाता है।
वैसे तो उसके होश सम्हालने से ही उसे पराए घर जाने की याद दिलाई जाती रहती है। उसे यही शिक्षा दी जाती है कि वह सर्वगुण सम्पन्न बने ताकि ससुराल में कोई उसकी बुराई न कर सके। वह स्वयं भी मानसिक रूप से इसके लिए तैयार रहती है कि एक-न-एक दिन बाबूल का अंगना छोड़कर उसे अपने पिया के घर जाना होगा।
उसके पैदा होने से लेकर ही माता-पिता उसके सुखद भविष्य की कल्पना करने लगते हैं। उसके अनुरूप योजनाएँ बनाते रहते हैं। धूमधाम से उसको पराए घर विदा करने के लिए संचय करना भी आरम्भ कर देते हैं। इस सबके पीछे उनकी भावना यही रहती है कि उस शुभ कार्य को करते के समय कहीं कोई कमी नहीं रहनी चाहिए, जिससे लोगों को टीका-टिप्पणी करने का अवसर न मिल सके। बेटी की खुशियों में कहीं कोई कमी न हो।
माता-पिता की हार्दिक इच्छा रहती है कि उनकी बेटी पढ़-लिखकर योग्य बन जाए और अपने पैरों पर खड़ी हो जाए। वह अपने जीवन में आर्थिक रूप से स्वतन्त्र बन जाए ताकि पैसे के लिए उसे किसी का मुँह न ताकना पड़े। बेटी भी आजकल अपने माता-पिता के सपनों को जी-जान लगाकर पूरा कर रही है। वह माता-पिता की इच्छा के अनुरूप योग्य बनकर, नित्य सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई, ऊँची उड़ान भर रही है।
विधि का विधान है कि बेटी को विदा करना ही है। इस दायित्व सभी माता-पिता पूरा टरते हैं। अपनी ओर से कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। राजा-महाराजा तक अपनी बेटी को सदा के लिए अपने घर नहीं रख सके तो फिर हम जन-साधारण को भी इस शुभकार्य को करना होता है।
बेटी को विदा करते समय एक और माता-पिता उसके सुखद भविष्य की कामनाओं के सपने बुनते हैं और प्रसन्न होते हैं। दूसरी ओर अपने कलेजे के टुकड़े को अनजान लोगों के बीच में भेजते हुए ससुराल में उसे उसको मिलने वाले यथोचित मान-सम्मान को लेकर चिन्तित रहते हैं।
संस्कृत भाषा के सुप्रसिद्ध महाकवि कालिदास ने 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' नाटक में माता-पिता की इसी स्थिति का वर्णन चार श्लोकों में किया है जो इस नाटक की जान हैं। अपनी पालिता पुत्री शकुन्तला को राजा दुष्यन्त के पास विदा भेजते समय ऋषि कण्व कहते हैं -'मैं एक सन्यासी हूँ, मैं संसार से निस्पृह हूँ। इस पालिता बेटी (शकुनतला उनकी बेटी नहीं थी, उसे सिर्फ उन्होंने पाला था) को विदा करते समर मेरे मन में हलचल हो रही है। उन गृहस्थियों की स्थिति कैसी होती होगी जो पनी बेटी को ससुराल विदा करते हैं।'
कहने का तात्पर्य है कि कण्व ऋषि जैसे तपस्वी भी उस जुदाई को सहन नहीं कर पाए। हम साधारण सामाजिक लोग हैं। हमारा मन बेटी को विदा करते समय निश्चत ही विदीर्ण होता है।
बेटी को अपनी ड्योड़ी से विदा करना खुशी और गम का यह एक मिश्रित अहसास होता है। जिसे हर माता-पिता व परिवारी जनों को सहन करना पड़ता है। इस शुभकार्य को सम्पन्न करने के लिए उन्हें अपने जिगर को बहुत बड़ा करना पड़ता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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शनिवार, 12 दिसंबर 2015
बेटी को विदा करना
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