बहुत कठिनाई से प्राप्त इस अमूल्य मानव जन्म में मनुष्य को कुछ ऐसे कार्य कर लेने चाहिए जिससे वह युगों-युगों तक याद किया जाता रहे। ऐसा कोई भी कार्य भूले से भी नहीं करना चाहिए कि वह देश, धर्म, समाज, घर-परिवार अथवा मित्रों की नजर से गिर जाए।
हमारे ऋषि-मुनि और मनीषी कहते हैं कि चौरासी लाख योनियों के फेर की अग्नि से तपकर कुन्दन बने इस जीव को अपने शुभकर्मों की बदौलत यह मानव का चोला मिलता है। अनेक संघर्षों और कष्टों को भोगने के उपरान्त मिले इस जीवन को यूँ ही व्यर्थ गँवा देना तो समझदारी नहीं कही जा सकती।
प्रयत्न यही करना चाहिए कि अपनी विवेक बुद्धि जो मनुष्य को सृष्टि के सभी अन्य जीवों से महान बनाती है, का सहारा लेकर वह ऐसी योजनाएँ बनाए जो सृष्टि के सभी जीवों लिए कल्याणकारी हों, किसी के लिए विनाशकारी कदापि नहीं हो। ईश्वर की बनाई हुई प्रकृति अमीर-गरीब, ऊँच-नीच, रंग-रूप, जात-पात आदि सबका बिना भेदभाव किए समान रूप से सबका हित करती है और जीवन देती है।
ईश्वर सभी जीवों के लिए उनके जन्म से लेकर उनकी मृत्यु पर्यन्त सम्पूर्ण समय के लिए सारी व्यवस्थाएँ करता है। उन्हें झोली भर-भरकर नेमते देता है। अब यह हम सब पर निर्भर करता है कि हम अपनी झोली में उस मालिक की दी हुई कितनी नेमते सुविधा पूर्वक समेट सकते हैं।
यदि हमारी झोली सत्कर्मों को करने से मजबूत है तब उसमें ईश कृपा अधिक-से-अधिक समेटी जा सकेगी। यदि दुष्कर्मों को अधिकता से करने के कारण हमारी झोली कमजोर हो चुकी है तब ज्योंहि नेमते डाली जाएँगी त्योंहि वह फट जाएगी या चिथड़े-चिथड़े हो जाएगी। फटी हुई उस झोली में मनुष्य चाहकर भी मालिक की दी हुई सारी नेमते नहीं सहेज पाएगा। उसकी वह फटी हुई झोली खाली-की-खाली रह जाएगी।
मनुष्य उन सब नेमतों को अपनी झोली से बाहर गिरते हुए मात्र मूक द्रष्टा बनकर देखता रह जाता है, कुछ उपाय नहीं कर सकता।
मनुष्य जब तक अपने आचार-व्यवहार में बदलाव नहीं लाता तब तक वह इस संसार में किसी का भी प्रिय नहीं हो सकता तो उस परमपिता परमात्मा का कृपापात्र वह कैसे बन सकता है? उसकी कृपादृष्टि हम सब पर बनी रहनी बहुत आवश्यक है।
कोई भी मनुष्य इस संसार में अपने किसी प्रिय व्यक्ति की नजरों से गिरना नहीं चाहता। उसका यथासम्भव यही प्रयास होता है कि किसी भी विधि से वह सबका प्रिय बन जाए। उसके लिए वह नाना विध उपाय करता ही रहता है।
परन्तु वह ईश्वर जो हमारा माता-पिता, भाई-बन्धु सब कुछ है, उसकी नजरों में ऊँचा उठने के बारे में हम विचार ही नहीं करते। हम सभी मनुष्य सदा ही मनमानी करते हैं। स्वेच्छाचारिता वाला व्यवहार करते रहते हैं। हम अपने हृदयों को सदैव अपनी इच्छा से कलुषित करते रहते हैं। इस बात का हमें जरा भी ध्यान नहीं आता कि जब हम इस असार संसार से विदा लेकर उसके दर पर जाएँगे तो उससे नजरें कैसे मिला सकेंगे।
इस भौतिक जीवन के अपने माता-पिता के सामने अपनी नजरें झुकाने का मौका देने वाला कोई काम हम नहीं करते। हम सदा गर्व से अपना सिर ऊँचा रखना चाहते हैं।
यदि उस मालिक की नजरों में गिरना नहीं चाहते तो समय रहते ऐसे कर्म कर लीजिए ताकि अन्तकाल में पश्चाताप करने की आवश्यकता न पड़े अपनी नजरें झुकाकर नहीं बल्कि अपनी नजरें उठाए स्वाभिमान पूर्वक अपना सिर ऊँचा करके उस परमपिता के पास जा सकें।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 29 दिसंबर 2015
नजर से न गिरना
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