शनिवार, 19 दिसंबर 2015

मनुष्यों का प्रकृति के अनुसार विभाजन


आसपास रहने वाले या काम करने वाले बहुत से लोगों के साथ हमारा संपर्क होता है। सबकी प्रकृति अलग-अलग होती है। हर व्यक्ति के आचरण और व्याहार में हमें विभिन्नता दिखाई देती है। जिस प्रकार मनुष्य रंग-रूप में एक जैसे नहीं दिखाई देते उसी प्रकार उनकी आदतों में भी अन्तर स्पष्ट ही लक्षित होता है।
         सामाज में रहते हुए वे सब के साथ कैसा व्यहार करते हैं? समाज उनकी स्थिति कैसी है?  उसके अनुसार उन्हें हम चार श्रेणियों में इस प्रकार विभाजित कर सकते हैं- 1. उदार   2. दाता   3. कंजूस 
4.  मक्खीचूस।
          सबसे पहले हम उदार लोगों की चर्चा करते हैं। ये महानुभाव सारी पृथ्वी के जीवों को अपने हृदय से लगाकर रखने का जज़्बा रखते हैं। ये परोपकारी लोग सभी के चहेते होते हैं। हर व्यक्ति इनसे अपना संपर्क साधना चाहता है। ये निस्वार्थ भाव से सबके सुख-दुख में साथ निभाते हैं। लोग इनके पास अपनी परेशानियों के साथ आते हैं और प्रसन्न होकर वापिस लौटते हैं। किसी के रहस्यों को सार्वजनिक करके उसे उपहास का पात्र नहीं बनाते। बहुत ही गम्भीर व सज्जन इन लोगों को महापुरुषों की तरह समाज पूजता है।
            दूसरे प्रकार के लोग दाता होते हैं जो दान देने में कभी पीछे नहीं हटते, सदैव तत्पर रहते हैं। सामाजिक एवं धार्मिक सभी प्रकार की संस्थाओं को वे दिल खोलकर दान देते हैं। जहाँ किसी जरूरत मंद को देखते हैं बिना किसी को पता चले उसकी सहायता करते हैं। अपने-पराये का भेदभाव किए बिना ही बादलों की तरह निस्वार्थ भाव से मदद करने में हिचकिचाते नहीं हैं। लोग अपने कष्ट के समय में इनकी उदारता से कृतार्थ होते हैं। समाज में इन लोगों का एक स्थान होता है। अपने सरल स्वभाव के कारण ये लोग हर जगह पर सम्मानित किए जाते हैं।
         तीसरे प्रकार के लोग कंजूस होते हैं। वे हर किसी से मोलभाव करते रहते हैं। अपने घर-परिवार, पत्नी और बच्चों की सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। अतिथि सत्कार करने में भी घबराते नहीं हैं परन्तु पैसे को दाँतों से पकड़ते हैं। सामने इनका लिहाज करते हुए चाहे कोई कुछ न कहे पर पीठ पीछे कंजूस कहकर मजाक अवश्य ही उड़ाते हैं।
        चौथे प्रकार के लोगों को आम भाषा में मक्खीचूस कहते हैं। ये ऐसे लोग होते हैं जो न खाते हैं और न खाने देते हैं। हर समय पैसे को लेकर झिकझिक करते रहते हैं। इनके लिए कहा जाता है-
        'चमड़ी जाय पर दमड़ी न जाए।'
ये लोग अपने धन पर साँप की तरह कुंडली मारकर बैठे रहते हैं। लोग पीठ पीछे तो क्या सामने भी इनको चिढ़ाते हैं। पर इन चिकने घड़ों पर कोई असर नहीं होता। ये लोग दाँत निपोर कर रह जाते हैं। इनसे घर-परिवार के जन व भाई-बन्धु आदि सभी परेशान रहते हैं। किए गए अपमान का भी इन लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ये जस के तस ही रहते हैं। जीते जी ये किसी की जरूरत को पूरा नहीं करते। परिवार के लोग आवश्यक वस्तुओं के लिए भी तरसते रहते हैं और ये उसे फिजूलखर्ची बताकर अपना पल्लू झाड़ लेते हैं। पर इनकी मृत्यु के बाद इनके घर के लोग उस पैसे को बिना दर्द के उड़ाते हैं।
          हमें स्वयं तय करना है कि हम किस श्रेणी का बनना चाहते हैं। सबकी आँखों का तारा बनकर हम सुख भोगना चाहते हैं या लोगों के व्यंग्य बाणों को सहन करना अपनी नियति बनाना चाहते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

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