मानव मन सदा ऊँची उड़ान भरता रहता है। इसका कारण है कि उसकी इच्छाएँ उसका साथ देती हैं। मनुष्य की वे इच्छाएँ कभी समाप्त नहीं होतीं। एक इच्छा पूरी करने के लिए मनुष्य दिन-रात हाड़-तोड़ मेहनत करता है। उसे जब पूरा कर लेता है तब उसकी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहता।
यह खुशी तो कुछ ही समय बाद उसका साथ छोड़कर छूमन्तर हो जाती हैं। इसका कारण है कि एक कोई और ही नई इच्छा मुस्कुराते हुए उसके सामने आकर खड़ी हो जाती है और मनुष्य को लुभाने लगती है। वह उसके जाल में फंसा ठगा-सा रह जाता है। तब फिर दुबारा से आरम्भ हो जाता है कठोर परिश्रम करने का वही चक्र जो उसकी रातों का चैन छीन लेता है और उसे भटकने के लिए विवश कर देता है।
इच्छाओं की यह आँखमिचौली एक मृगतृष्णा है। इसके पीछे आखिर कब तक मनुष्य भागता रहेगा? इस भटकन का क्या कभी अन्त होगा? ये इच्छाएँ मनुष्य को कब सताना छोड़ेंगी? ये प्रश्न वास्तव में गम्भीरता से विचारणीय हैं।
जब तक जीवन हैं संसार के आकर्षण मनुष्य को लुभाते रहते हैं। मनुष्य उनके हाथ की कठपुतली बना बस बेबस निहारता रहता है।
मनुष्य जब तक इच्छाओं का गुलाम बना रहेगा तब तक सुख-शान्ति नहीं प्राप्त कर सकता। इसके विपरीत इच्छाओं को जब वह अपना दास बना लेता है तब वे उसके पीछे-पीछे चलती हैं। वे उसका अनुसरण करती हुईं उसे अपने शिकंजे में जकड़ने में कामयाब नहीं हो पातीं और न ही उसे अपना गुलाम बना पाती हैं। उस समय वे उस स्वामी के आदेश का पालन करती हैं।
बारबार सताने वाली इन इच्छाओं में से कुछ को मनुष्य अपने जीवन में पूर्ण कर लेता है। जो इच्छाएँ पूरी हो जाती हैं उनके लिए वह प्रसन्न हो जाता है। जिन इच्छाओं को वह किसी कारण से पूर्ण नहीं कर पाता उनके विषय में बैठा हुआ केवल योजनाएँ बनाता रहता है। यह भी कोई आवश्यक नहीं कि वे सभी इच्छाएँ उसकी पहुँच में हों। वह हाथ बढ़ाए और उन्हें पके हुए फल की तरह वृक्ष से तोड़कर खा ले। चुटकी बजाते हुए उन्हें वह सरलता से पूरा कर पाए।
ऐसी बहुत-सी इच्छाएँ होती हैं जिन्हें मनुष्य मृत्यु पर्यन्त भी पूरा नहीं करने में सफल नहीं हो पाता। वही इच्छाएँ उसके सन्ताप का कारण बन जाती हैं। सोते-जागते, उठते-बैठते वह उन्हीं ही के विषय में सोचता रहता है और चर्चा करता रहता है और आहें भरता रहता है। ये उसके जी का जंजाल बन जाती हैं।
दूसरों के पास जब वह सभी प्रकार की आधुनिक सुविधाएँ देखता है तो उन्हें पाने की उसकी इच्छा बलवती होने लगती है। उस समय वह उन्हें जुटाने की फिराक में यह भी भूल जाता है कि उन सबको पाना शायद उसके बूते से बाहर की बात है। दूसरों की होड़ करते समय अपने सीमित साधनों को अनदेखा करना उचित नहीं कहा जा सकता।
इच्छाओं के पीछे जीवन भर भागते रहने से मानसिक शान्ति नहीं मिल सकती। एक के बाद एक इच्छाएँ उसे मुँह चिढ़ाती रहती हैं और बड़े सुनहरे सपने दिखाती रहती हैं। उनकी ओर से सावधान रहते हुए अपने मन की शान्ति भंग न करके, सन्तोष रखना चाहिए। यदि कुछ मिल गया तो ठीक और यदि न मिले तो भी बढ़िया वाली वृत्ति सुखदायी होती है।
जो मनुष्य को अपने भाग्य से मिल रहा है, उसे पाकर सन्तोष करते हुए उसे ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए। उसे जो इस जीवन काल में नहीं मिला उसके लिए शुभकर्मों को करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। अधिक पाने के लालच में अपने वर्तमान को दाँव पर नहीं लगा देना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015
इच्छाएं असीम
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