उस मनुष्य से बढ़कर बड़भागी अथवा सौभाग्यशाली व्यक्ति इस संसार में कोई और नहीं हो सकता जिसके द्वार पर कोई सहायता माँगने के लिए आता है। उसे अपने ऊपर मान होना चाहिए पर घमण्ड नहीं कि उसे किसी ने इस योग्य समझा कि उसके पास आकर वह अपनी समस्या का वह निदान कर सकता है।
कोई भी व्यक्ति किसी के पास बहुत आशा लेकर आता है। मनुष्य किसी के पास तीन कारणों से आता है- भाववश, अभाववश अथवा प्रभाववश।
व्यक्ति यदि सच्चे मन से किसी भावना से आया है तो उसे उस समय प्रेम की आवश्यकता होती। इसलिए उसके साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। हो सकता है वह अपनी मूर्खता से या अपनी किसी मजबूरी के कारण समाज से कटकर अलग-थलग पड़ गया हो। उसे अनचाहे अवसाद के समय शायद किसी अपने के भावनात्मक सहारे की जरूरत हो। यदि ऐसा कर सका जाए तो वह मनुष्य उस सहारा देने वाले व्यक्ति का अपना बन जाता है।
समय और परिस्थितियों के कारण कोई अभावग्रस्त किसी पास जाता है तो यथासम्भव उसकी मदद अवश्य ही करनी चाहिए, उसे इन्कार करके निराश नहीं करना चाहिए। पता नहीं वह व्यक्ति कितना मजबूर होगा जो अपने जमीर को मारकर सहायता माँगने आया है। सयाने कहते हैं- 'माँगन गए सो मर गए, मरकर माँगन जाए।'
इसलिए उस मजबूर व्यक्ति की आशा को निराशा में न बदलते हुए एक अच्छे सामाजिक इन्सान होने का परिचय देना चाहिए। इसी प्रकार एक-दूसरे की सहायता करते रहने से संसार के सभी व्यवहार चलते हैं। समृद्ध व्यक्ति की सहायता कर देना कोई बड़ी बात नहीं है। वहाँ तो इस प्रकार के लेनदेन का व्यापार होता ही रहता है।
यदि किसी प्रभावशाली के पास कोई मनुष्य उसके प्रभाव के कारण से आया है तो इस बात के लिए प्रसन्न होना चाहिए कि परमात्मा ने उसे इतनी सामर्थ्य दी है कि वह किसी के काम आ सकता है। ऐसी स्थिति में किसी की सहायता करने में हिचकिचाना नहीं चाहिए। इसे अपना सौभाग्य ही समझना चाहिए कि सारा शहर छोड़कर वह व्यक्ति आपके पास आया है किसी और के पास नहीं गया। उसे आपसे कुछ अच्छाई की उम्मीद होगी, तभी तो आपकी शरण में सहायता लेने आया है।
इस बात को हमेशा याद रखना चाहिए कि किस्मत की एक आदत है कि वो पलटती जरुर है और जब पलटती है तब सब कुछ उलट-पलट करके रख देती है। जीवन में ऐसी विपरीत स्थिति किसी भी व्यक्ति की हो सकती है। इसलिये अच्छा समय आने पर अहंकार न करो और कष्टदायी समय में धैर्य रखना चाहिए। जहाँ तक हो सके अपनी उन्नति के समय अपने हाथों से कुछ ऐसे काम कर लेने चाहिए जिससे मनुष्य सबके हृदयों में अपना स्थान बना सके।
दूसरा व्यक्ति किसी के पास चाहे भाव के कारण, अभाव से त्रस्त होकर अथवा रुतबे से प्रभावित होकर आया है, यानि कि किसी भी परिस्थिति के वशीभूत होकर आया है, उसे निराश नहीं करना चाहिए। समय पर उसके सिर हाथ रख देने से वह कृतज्ञ होकर उसका मुरीद बन जाता है। इस प्रकार मनुष्य के हितचिन्तकों की संख्या बढ़ती रहती है। मनुष्य की पहचान उसके बन्धु-बान्धवों और मित्रों से होती है। वे उसके अपने बन गए तो मानो वह जिन्दगी की जंग जीत गया अन्यथा कुचलने के लिए तो जमाना तैयार ही बैठा हुआ है।
बस शर्त एक ही है कि मनुष्य को किसी की सहायता करने का घमण्ड नहीं करना चाहिए, उसे केवल अपना कर्त्तव्य समझकर करना चाहिए। उसे अपने किए गए परोपकार के कार्यों को यहाँ वहाँ गाते नहीं फिरना चाहिए। ऐसा करने से सम्मान के स्थान पर उसे लोगों की अपेक्षा और तिरस्कार का सामना करना पड़ता है।
मनुष्य को सदा इस बात के लिए परमात्मा का धन्यवाद करना चाहिए कि उसने इस संसार में भेजकर उसे इस योग्य बनाया है कि वह किसी दूसरे के काम आ रहा है।
चन्द्र प्रभा सूद
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सोमवार, 13 जून 2016
बड़भागी मनुष्य
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