गुरुवार, 16 जून 2016

धर्म प्रभु तक पहुँचने का मार्ग

जितने भी हमारे धर्म हैं वे केवल ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग दिखाते हैं। मनुष्य के इस संसार में आने का उद्देश्य यही है कि वह अपना लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करे। मनीषियों का कथन है कि चौरासी लाख योनियों में अपने पापकर्मों की सजा भुगतने के बाद जीव को यह मानुष तन मिलता है।
          कोई भी धर्म दंगा-फसाद करने की अनुमति नहीं देता। सभी धर्म परस्पर मिल-जुलकर रहने का आदेश देते हैं। वे परस्पर भाईचारे को प्रोत्साहित करते हैं। किसी धर्म को मानना व्यक्तिगत मामला है। साथ ही वह किस देवी-देवता की पूजा-अर्चना करे यह व्यक्ति विशेष की इच्छा पर निर्भर करता है।
         कोई यदि जोर-जबरदस्ती करता है अथवा तलवार के बल पर या कोई लालच दिखाकर किसी का धर्म परिवर्तित कराना चाहता है तो यह सरासर गलत है। इसे हम अपराध की श्रेणी में रख सकते हैं। यदि कोई भी व्यक्ति ऐसा दुष्कार्य करता हुआ पकड़ा जाए तो उसके लिए कानून में सजा का प्रावधान है।
         साईं बाबा का कथन है- मन्दिर में ज्योत, दरगाह में दीया और गुरुद्वारे में ज्योति, गिरिजाघर में मोमबत्ती जलाते हैं। मगर लौ सबकी एक जैसी होती है। इससे पता चलता है कि सबका मालिक एक है।
          इस कथन का अभिप्राय यही है कि हर धार्मिक स्थान पर पूजा करते समय प्रकाश किया जाता है, उन सबका तरीका चाहे अलग है किन्तु अर्थ एक ही है।
          सभी धर्म यद्यपि एक ही ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग दिखाते हैं। जैसे विश्व के किसी भी कोने से हम अपने घर पर पहुँच सकते हैं। किसी भी स्थान से घर आने के लिए हम अलग रास्ता पकड़ते हैं। हमारा लक्ष्य मात्र अपने घर पहुँचना होता है। चाहे कितनी भी कठिनाई मार्ग में आए अथवा कितने ही कटु अनुभवों से दो-चार होना पड़े, अन्तत: हम अपने घर पहुँच ही जाते हैं। हम घर पर पहुँचकर ही सन्तुष्टि का अनुभव करते हैं। इसीलिए छज्जू महाराज ने कहा है-'जो सुख छज्जू दे चौबारे न बलख न बुखारे।'
         अर्थात अपना घर चाहे महल न हो, टूटा-फूटा हो या झोंपड़ी हो सुख वहीं मिलता है। कितने ही फाइव स्टार होटलों में रह लिया जाए अथवा किसी धनी मित्र के घर आवभगत करवा ली जाए पर भगवान श्रीकृष्ण से महल में अपनी सेवा करवाने वाले सुदामा की तरह अपनी झोंपड़ी का मोह नहीं छूटता। सदा अपना वही बसेरा ही सुखदायी होता है।
         यह संसार एक रैन बसेरा है। हम चाहें न चाहें इसे निश्चित अवधि के पश्चात छोड़कर जाना पड़ता है। हमारा वास्तविक घर प्रभु की शरणस्थली है। वहीं जाकर हमें सच्चा सुख मिलता है। इस दुनिया के बाजार में तो बस हम मौज-मस्ती करने आते हैं। काम निपटाकर फिर अपने घर चले जाते हैं।
          उस प्रभु तक पहुँचने का मार्ग संसार के सारे धर्म बताते हैं। जिस प्रकार एक मनुष्य को बेटा, भाई, भतीजा, पिता, पति, मामा, चाचा, ताया, फूफा, मित्र आदि अनेक नामों से बुलाते हैं, उसी प्रकार परमपिता परमात्मा को भी हम विभिन्न नामों से पुकारते हैं। इसके लिए झगड़ा करना या एक-दूसरे को नीचा दिखाना उचित नहीं है और न ही यह विवाद का विषय है।
          अब बात आती है कि ईश्वर की पूजा किस रूप में की जाए। उसकी पूजा चाहे निराकार रूप में की जाए या साकार रूप में कोई अन्तर नहीं पड़ता। मूर्ति पूजा प्रारम्भिक स्टेज होती है जिस पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। बाद में धीरे-धीरे मूर्ति भी छूट जाती है और निराकार ईश्वर केवल प्रकाश के रूप में ही दिखाई देने लगता है। उस प्रभु का यह प्रकाश हमारे इन भौतिक चक्षुओं से नहीं दिखाई देता। वह केवल आभ्यन्तरिक चक्षुओं से दिखाई देता है।
         सभी धर्म इसी अलौकिक प्रकाश की ओर ले जाते हैं। यानि कि सभी धर्मो की अन्तिम परिणति एक ही है। हमारे आदीग्रन्थ वेद भी यही कहते हैं-  ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् हे ईश्वर! हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो।
चन्द्र प्रभा सूद
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