घर की शोभा जितनी बेटे से होती है उतनी ही बेटी से भी होती है। बेटी के होने से घर में अनुशासन बना रहता है। आज हम सब लोग इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। दुनिया मानो सिकुड़कर मुट्ठी में आ गई है।
बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आज के इस अत्याधुनिक युग में भी बहुत से परिवारों में बेटी और बेटे में फर्क किया जाता है, जिसका दुष्परिणाम हम इन दोनों के जन्म दर अनुपात में देख सकते हैं। जन्म दर के अनुपात का असन्तुलन पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में अधिक पाया जाता है। बेटों को आवश्यकता से अधिक प्रश्रय देने के कारण ही शायद यह समस्या उत्पन्न हुई है।
ईश्वर की ओर से कोई अन्तर नहीं किया जाता। दोनों का जन्म माँ के गर्भ से ही होता है। दोनों के जन्म की अवधि भी एक जैसी यानि नौ महीने होती है। माता को दोनों ही बच्चों को जन्म देते समय गर्भावस्था में एक जैसी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। और तो और माँ को दोनों को जन्म देते समय एक समान ही प्रसव पीड़ा भी होती है।
समझ नहीं आता कि यह समस्या इतना विकराल रूप क्यों लेती जा रही है? शायद मुगलकाल में यह अन्याय जो बेटियों के साथ आरम्भ हुआ जो आजतक समाप्त नहीं हुआ। लड़की की पैदा होते ही हत्या करने का रिवाज उस समय से जो चला वह आज तक जारी है। उस समय की स्थितियाँ बहुत विपरीत थीं। मुगल सुन्दर युवतियों का जबरन हरण कर लेते थे। इसीलिए पर्दा प्रथा, सती प्रथा और जन्मते ही लड़कियों को मार देने जैसी कुप्रथाओं का प्रचलन आरम्भ हुआ।
हम स्वतन्त्र देश के नागरिक हैं, फिर भी इन बेड़ियों जैसी कुप्रथाओं से मुक्त नहीं हो पा रहे। अब बेटियों की हत्या करने का वह कारण नहीं रहा। आधुनिक युग में इसका कारण शायद दहेज की बढ़ती हुई माँग है। जो लोग दो समय की रोटी की समस्या से जूझ रहे हैं वे दहेज जुटाने मे असफल होते हैं। दिन-प्रतिदिन दहेज उत्पीड़न की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैँ। अनेक मासूम बेटियाँ इसकी भेंट चढ़ गई हैं। केवल अनपढ़ स्त्रियों के साथ ही ये दुर्घटनाएँ नहीं होतीं बल्कि पढ़ी-लिखी उच्च पदासीन महिलाओं को इस निन्दनीय, हृदयविदारक कुरीति की समस्या से प्रतिदिन जूझना पड़ता है।
हर माता-पिता का कर्त्तव्य है कि वे बहू को अपनी बेटी मानें। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे भी एक औरत हैं और उनकी बेटी भी किसी की बहू है। ऐसा नृशंस व्यवहार अपनी बहू के साथ करने से पहले उन्हें अपनी बेटी के उस स्थिति में होने की कल्पना कर लेनी चाहिए। यदि इस नजर से लोग सोचने लगें तो शायद इस नृशंसता से बचा जा सकता है।
बहू के साथ दुर्व्यवहार या क्रूरतापूर्ण व्यवहार करके फिर स्वयं आजन्म जेल में चक्की पीसने की पीड़ा को न भूलें। ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार उनके लिए जीते जी मरने के समान होता है। दूसरे की बेटी को दिया गया मानसिक कष्ट आजन्म उनके क्लेश का कारण बन जाता है।
ऐसे लोग यदि किसी तरह से अपनी दरिन्दगी पर पर्दा डालने में सफल हो जाते हैं तो उस ऊपर वाले की बड़ी अदालत के न्याय से वे नहीं बच सकते। वहाँ पर तो पल-पल का हिसाब देना पड़ता है। उसके द्वारा दिए गए दण्ड को भोगने में नानी याद आ जाती है। तब मनुष्य न अपना बचाव कर सकता है और न ही उसकी न्याय व्यवस्था से बच सकता है।
बहू को अपनी बेटी मानते हुए उसके साथ सहृदयता और अपनेपन का व्यवहार करना चाहिए। वह दूसरे घर से आई बेटी आपके वंश को चलाती है। आपके घर के साथ-साथ सारी जिम्मेदारियाँ निभाती है। इसलिए उसे भी अपनी तरह का इन्सान मानते हुए व्यवहार कीजिए और बिना किसी पूर्वाग्रह के अपने अहं का त्याग करके अपने बडप्पन का प्रदर्शन कीजिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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शुक्रवार, 3 जून 2016
घर की शोभा बेटियों से
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