स्वास्थ्य मनुष्य के लिए ईश्वर का दिया हुआ सबसे अमूल्य और दिव्य उपहार है। अपने शरीर को स्वस्थ रखना मनुष्य का कर्तव्य है अन्यथा मनुष्य अपने मन और अपनी सोच को शुद्ध व पवित्र नहीं रख सकता।
यह स्वास्थ्य मनुष्य की पूँजी है। जैसे धन-वैभव को सम्हालकर रखा जाता है उसी प्रकार अपने इस स्वास्थ्य को भी सम्हालकर रखना चाहिए। बहुत दुख के साथ यह कहना पड़ता है कि हम इसी ईश्वरीय नेमत से खिलवाड़ करते हैं। न हम समय पर सोते हैं और न ही समय पर जागते है। हमारी सभी पार्टियाँ देर रात तक चलती हैं। देर रात तक क्लबों में मौज-मस्ती चलती है।
हमारा आहार-विहार सब उलट-पुलट हो चुका है। जिस रोटी को कमाने के लिए अथक परिश्रम करते हैं, दिन-रात एक कर देते हैं और कोल्हू का बैल तक बन जाते हैं, उसी को खाने के लिए हमारे पास समय नहीं बचता। हम बहुत व्यस्त रहते हैं। हम स्वास्थ्यवर्धक भोजन न खाकर अधिक मसालेदार और तले हुए खाद्यान्न खाना पसन्द करते हैं। डिब्बाबन्द पदार्थ और जंकफूड खाकर हम इतराते हैं।
घर का खाना हमें नहीं भाता, यह कहकर हम अपनी शान बघारते हैं। एक समय आता है जब सब कुछ हाथ से निकल जाता है यानि यह स्वास्थ्य बिगाड़ जाता है। उस समय जब हम असहाय हो जाते हैं तब रो-रोकर ईश्वर से स्वस्थ करने की या इस दुनिया से उठा लेने की प्रार्थना करते हैं।
तब डाक्टरों के पास चक्कर लगाते हुए अपना बहुमूल्य समय व मेहनत की गाढ़ी कमाई बरबाद करते हैं। वह एक समय जीवन में ऐसा होता है जब डाक्टरों की सलाह पर सादा खाना खाने की हमारी लाचारी बन जाती है। तब डायटिशियन के बनाए चार्ट के अनुसार अपना खानपान सतुलित करने के लिए हम विवश हो जाते हैं और सारी हेकड़ी निकल जाती है। तब सब कमाया हुआ धरा रह जाता है।
अपने प्रिय से प्रिय और जान छिड़कने वाले भी कोई सहायता नहीं कर सकते। उस समय कितना भी पैसा खर्च लो किन्तु यह स्वास्थ्य पलटकर वापिस नहीं आ सकता और न ही मुँह में कोई एक निवाला डाल सकता है।
हमारे मनीषी इसलिए स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने पर बल देते हैं। हम ऐसे नालायक हैं जो उनकी महत्त्वपूर्ण बातों को अनदेखा करके कष्ट पाते हैं। महाकवि कालिदास ने कहा था-
'शरीरमाध्यं खलु धर्मसाधनम्।'
अर्थात हमारा यह शरीर धार्मिक कार्यों अथवा हमारे दायित्वों को पूरा करने का साधन है।
शरीर स्वस्थ होता है तो मनुष्य सभी कार्य उत्साह से करता है। यदि यही शरीर रोगी हो जाए या अपंग हो तो मनुष्य अपने स्वयं के कार्य करने में असमर्थ हो जाता है तो घर-परिवार व भाई-बन्धुओं के प्रति अपने कर्त्तव्यों को चाहकर भी पूरा नहीं कर सकता।
समस्या हमारे सामने तब आती है जब हम इस साधन शरीर को साध्य मान लेते हैं। दिन-रात इसे सजाने-सँवारने में लगे रहते हैं। इस पर सदा घमण्ड करते रहते हैं।
मनुष्य के इस संसार में आने का उद्देश्य है कि वह चौरासी लाख योनियों के सआथ-साथ जन्म-जन्मान्तरों के चक्र से मुक्त हो जाए। ईश्वर की उपासना अपना प्रमुख कर्त्तव्य मानकर करे। लेकिन इस दुनिया के आकर्षणों में फँसकर वह सब भूल जाता है और आजन्म कष्ट भोगता रहता है।
इस स्वस्थ शरीर में ही अपने विचारों को शुद्ध व पवित्र रख सकते हैं और अपने मन को साध सकते हैं। कठोपनिषद् ने इस शरीर को रथ माना है। यदि यह रथ अपनी गति से चलेगा तभी तो हमें अपनी मंजिल मुक्ति तक पहुँचाएगा।इस इसलिए इस शरीर की देखभाल करनी आवश्यक है। शेष अन्य दायित्वों की भाँति इसका निर्वहण भी करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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