समय पंख लगाकर न जाने कब से
आसमान में ऊँचा उड़ता जा रहा है।
मेरे विश्वास की पूँजी को थामे उसे
अपने साथ लिए चलता जा रहा है।
बड़ी मुश्किलों से बरसों पहले पाले
मेरे यत्नों पे पानी फेरता जा रहा है।
सम्हाल कर रखा था इसे अब तो
मेरे हाथों से यह छूटता जा रहा है।
सोचती हूँ क्यों एक-दूसरे के लिए
विश्वास यूँ जरूरी होता जा रहा है।
फिर लगने लगता है अगले ही पल
टूटता हुआ कुछ दरकता जा रहा है।
समझ नहीं आता क्योंकर मुझे एक
अनजाना-सा डर सताता जा रहा है।
जीवन से विश्वास उठ गया मानो
काल के गाल में समाता जा रहा है।
सोचती हूँ उठकर समेटूँ विश्वास को
जो पतंग की तरह छूटता जा रहा है।
पकड़ो इसे कोई, देखो सामने से यह
चिन्दी-चिन्दी होकर उड़ता जा रहा है।
कैसे जी सकूँगी इसके बिना पलभर
निज नजरों से सब गिरता जा रहा है।
तड़प रही हूँ अब जलबिन मीन-सी
हर सिरा देखो उलझता जा रहा है।
काश यह लम्हा ठहर जाए इसी पल
रुक जाए जो डगमगाता जा रहा है।
किससे फरियाद करूँ बचाओ मुझे
मेरा अंतस् झकझोरता जा रहा है।
कोशिश है टूटे विश्वास को सीने की
जो शायद फिर से जुड़ता जा रहा है।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp
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